यश का शिकंजा / भाग 8 / यशवंत कोठारी

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राजधानी में राजनीतिक गतिविधियाँ तेजी से चल रही थीं। अपने-अपने खेमों में, अपने-अपने गुटों में सभी अपने-अपने ढंग से शतरंज की चालें खेल रहे थे। आज शतरंज के प्यादे भी अपनी शान दिखा रहे थे। जब से रानाडे उप-प्रधानमंत्री बन गए, उनकी ही सत्ताधारी पार्टी का एक गुट, जो उनके खिलाफ था, बहुत ज्यादा परेशान था। इधर इस गुट के नेताओं ने मिलकर सुराणा और मनसुखानी को अपनी ओर कर लिया था। अब सत्ताधारी पक्ष में अलग से सभी गुटों की पहचान बन गई थी।

रानाडे तथा उनका गुट सबसे शक्तिशाली था, बहुत से महत्वपूर्ण विभाग इस गुट के पास थे। दूसरा शक्तिशाली गुट सुराणा व उन असंतुष्टों का था, जो सत्ता में तो थे, लेकिन महत्वाकांक्षी बहुत अधिक थे। राव साहब ऊपरी तौर पर पार्टी में एकता दिखा रहे थे। संवाददाताओं, अखबारों, विदेशी संवाद-एजेन्सियों को अक्सर यही कहते कि पार्टी में कोई मतभेद नहीं है, सब कुछ सामान्य और ठीक चल रहा है लेकिन पार्टी की आंतरिक स्थिति विस्फोटक थी। लोकसभा उप-चुनावों के निकट आ जाने के बाद भी पार्टी की ओर से कोई सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे थे। जिन्हें टिकट मिला था, वे पार्टी-फंड से अधिक-से-अधिक रुपया प्राप्त करने के चक्कर में थे।

प्राप्त रुपयों से ही चुनाव लड़ा जाना था, अतः रानाडे और उसके साथियों का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया। जो रैली उन लोगों ने पिछले दिनों आयोजित की थी, उसकी सफलता से उनके हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो गए थे। इस रैली में आस-पास के राज्यों से लगभग दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया। गैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार लगभग एक करोड़ रुपयों का व्यय किया गया। इस अपव्यय के कारण राव साहब दुखी थे, लेकिन क्या करते! अब उनकी पकड़ पार्टी और सरकार दोनों से ही छूटती जा रही थी। ऐसे अवसर पर राव साहब ने केबिनेट की मीटिंग का आयोजन अपने निवास स्थल पर किया।

अपने प्रारंभिक भाषण में राव साहब ने रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाए जाने की पुष्टि करते हुए उनको कार्यो की प्रशंसा की, लेकिन बीच में सुराणा व मनसुखानी ने दखल दिया -

'क्या इस नियुक्ति के पीछे किसी विदेशी शक्ति का हाथ है?'

'तो फिर एक उप-प्रधानमंत्री हमारे गुट का भी हो, ताकि संतुलन बराबर रहे।

'ऐसा कैसे हो सकता है!'

'क्यों नहीं हो सकता?'जब एक उप-प्रधानमंत्री हो सकता है तो दो भी हो सकते हैं। पार्टी को विघटन से बचाने के लिए यह आवश्यक भी है।'मनसुखानी ने सुराणा की बात पर बल दिया।

राव साहब के बोलने से पहले ही रानाडे कहने लगे -

'देखिए, इस तरह सरकारें नहीं चलती। क्या आप चाहते हैं कि सभी को बारी-बारी से प्रधानमंत्री या उप-प्रधानमंत्री बना दिया जाए। यह संभव नहीं है।'

'क्यों संभव नहीं है? आप विश्रामस्थल में भूमिगत हो गए, जब वापस आए तो उप-प्रधानमंत्री थे।'

'अगर ऐसा नहीं हुआ, मनसुखानी ने कहा, 'तो हमारे गुट के सभी सदस्य त्यागपत्र दे देंगे।' इस बात से सभी चुप्पी साध गए।

राव साहब ने वापस बात छेड़ी।

'बात-बात पर इस्तीफे और सत्ता से अलग हो जाने की बातें मैं पिछले काफी समय से सुन रहा हूँ; लेकिन कोई अलग नहीं होता, हर कोई अपनी महत्वाकांक्षा की एक और सीढ़ी चढ़ जाना चाहता है। ताकि वे भी जब हटें तो शायद सत्ता के सर्वोच्च शिखर से हटें।'

राव साहब के कथ्य में सत्य था, अतः सभी सिर झुकाकर सुनने लगे; कोई भी बोलने की स्थिति में नहीं था।

'तो फिर क्या किया जाए?'राव साहब शायद फैसला करना चाहते थे।

'अगर मेरे हटने से बात बन सकती हो, तो मैं हट जाऊँ।'

'नहीं-नहीं, आपके हटते ही तो पार्टी डूब जाएगी!'रानाडे ने जोर से कहा।

रानाडे की बात को कैसे इनकार करते राव साहब, अतः जमे रहे।

'अगर रानाडे चाहें तो एक उप-प्रधानमंत्री का पद और बना दें...'

'मुझे क्या एतराज हो सकता है!' रानाडे ने निराश भाव से कहा। सायँकाल राष्ट्रपति भवन से एक विज्ञप्ति जारी हुई, जिसमें सुराणा को भी उप-प्रधानमंत्री बनाने का समाचार था।

आज सुराणा के समर्थक खुश थे। उनकी कोठी पर अंदर के कमरे में वार्तालाप जारी था -

'अपने से पहले ही गलती हो गई!' सुराणा कह रहे थे, 'अगर उस वक्त प्रधानमंत्री के चुनाव में खड़ा हो सकता तो आज मैं ही प्रधानमंत्री होता!'

'हाँ, ये तो है!' मनसुखानी बोले।

'खैर, देर आयद दुरुस्त आयद!' सुराणा ने पाँव सोफे पर पसारे और आँखें मूँद लीं।

'अब विधान सभा चुनावों में अपने गुट को जितवाना है, ताकि राज्यों में शक्ति का विकास होता रहे।'

'हाँ, इसके लिए कुछ कदम उठाने चाहिए।' मनसुखानी बोले।

'तो आप बताइए क्या करें?'

'करना क्या है, हमें चुनाव-फंड में से ज्यादा पैसा अपने उम्मीदवारों को दिलाना है। चंदा भी उन्हें ज्यादा मिलना चाहिए, ताकि वे अधिक विश्वास के साथ चुनाव लड़ सकें और जीतकर आ सकें।'

'लेकिन चंदे और चुनाव-फंड पर तो रानाडे का कब्जा है।' हरिसिंह बोल पड़े।

'वो तो ठीक है! लेकिन पार्टी में फंड कम ही है। जो अपने उद्योगपति और कंपनियाँ हैं, उनसे कहकर सीधा पैसा ले लो।'

'वो कैसे?' मनसुखानी बोले।

'अरे भाई, वैसे भी चुनाव के बाद कम-से-कम तीन राज्यों में अपने ग्रुप की सरकार होगी - यह बात उद्योगपतियों को अभी से समझा दो, और क्या!'

'हाँ, उनसे सीधा पैसा हमें मिल सकता है।'

'लेकिन सभा उप-चुनाव भी आ रहे है।'

'इसमें हमें कुछ नहीं करना है। जिन्हें टिकट मिला है, वे रानाडे या राव साहब के आदमी हैं, जीतें या हारें!' सुराणा बोले।

'अगर हार जाते हैं तो रानाडे की बदनामी ज्यादा होगी, क्येंकि वे ही इस चुनाव के प्रभारी हैं। हमें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।'