यश का शिकंजा / भाग 9 / यशवंत कोठारी
अभी सुबह हुई है। अखबारों के हॉकरों और दूधवालों की साइकिलों की घंटियाँ सुनाई दे रही है। राजधानी के हॉकर आवाज लगा रहे हैं -
'उप-चुनाव-क्षेत्र में हरिजनों को जिंदा जलाया गया।'
'पुलिस देखती रही।'
'कई औरतों की हत्या।'
'बलात्कार और बर्बरता का घृणास्पद कारनामा।'
एक के बाद एक हॉकर इसी प्रकार की आवाजें लगाते चले जा रहे हैं।
संवाद-समितियों के मार्फत जो पूरे समाचार आए, वे इस प्रकार थे -
'गाँव मोलेला में चार हरिजनों को तीन रोज पूर्व जिंदा जला दिया गया। कुछ हरिजनों ने थाने में जाकर रपट लिखाई तो पुलिस ने उन्हें मार-पीटकर भगा दिया।'
इस समाचार का आना था कि सत्ताधारी पक्ष और अफसरों में खलबली मच गई। तत्काल प्रधानमंत्री राव साहब ने क्षेत्र के जिलाधीश से वायरलेस पर सीधे बातें की।
'स्थिति कैसी हैं?'
'सर, पूरी तरह नियंत्रण है।'
'तुम लोगों ने पहले कदम क्यों नहीं उठाया?'
'सर, कुछ पता ही नहीं चल पाया।'
'और देखो, दोषी आदमियों को अविलंब गिरफ्तार कर लो।'
'जी हाँ...'
'किसी प्रकार की ढील की जरूरत नहीं है। ...हाँ, क्या नाम था उस लड़की का, जिसकी हत्या कर दी गई?'
'जी भूरी...'
'अच्छा उसके माँ-बाप...?'
'उन्हें भी मार डाला गया।'
'और आप सभी देखते रहे? शेमफुल, हम स्वयं आकर देखेंगे।'
'जी अच्छा!'
जब से इस घटना का पता चला है, आसपास के गाँवों, ढाणियों और खेड़ों में आतंक का साम्राज छा गया है। पुलिस वैसे भी कुछ नहीं करती, लेकिन दिन-दहाड़े झोंपडी को आग लगाकर जिंदा जला दिए जाने की घटना ने तो लोगों की सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली और भूरी...
हे भगवान, एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार ऐसी मौत दुश्मन को भी न मिले! लेकिन महत्व बढ़ गया इस उपचुनाव के कारण। नहीं तो इस देश में ऐसी घटनाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देता। विरोधियों ने गाँव के अंदर ही, जली हुई झोंपड़ी की राख पर टूटा टेबल रखकर मीटिंग का आयोजन कर दिया। नेता जो राजधानी से आए थे, कहने लगे -
'मैं आपको बता दूँ, कानून और व्यवस्था इस सरकार के बस का काम नहीं। पुलिस बेकार है, नाकारा और आंदोलन में व्यस्त हैं। जिस देश की पुलिस रक्षा करने के बजाय भक्षण करने लग जाए, वहाँ ऐसा ही होता है!'
'मैं आप से यह कहना चाहता हूँ कि आप सरकार के भरोसे मत रहिए। कल भूरी मरी, आज कोई और मरेगा, और आप लोग इसी प्रकार हैरान, परेशान होते रहेंगे। सरकारी नेता और वोट लेनेवाले राजधानी चले गए, और आप को इन हैवानों के भरोसे छोड़ गए। मैं तो कहता हूँ कि पुलिस सबसे अधिक संगठित गुंडों का महकमा है। ये सब चोर और सुअर हैं।'
'अबे, उसको गाली देने से क्या होगा!' भीड़ में से आवाज आई। नेता ने अपना पसीना पोंछा, आवाज की तरफ हाथ फैलाकर कहने लगे -
'कुछ नहीं होगा, मैं जानता हूँ, कुछ नहीं होगा! लेकिन भूरी की मौत से क्या हम सबको कोई सबक नहीं लेना चाहिए?'
'हमारी भी माँ हैं, बहनें हैं; क्या उन्हें भी जिंदा जला दिया जाना चाहिए? मैं पूछता हूँ, कहाँ हैं वे सरकारी अफसर और कानून-कायदे? क्या गरीब की इज्जत नहीं होती?'
'आप लोग शायद नहीं जानते, सभी अफसर और बड़े नेता राजधानी में बैठकर इस घटना पर लीपापोती कर रहे हैं, ताकि चुनाव में इसका बुरा असर नहीं पड़े।'
वे तनिक रुके, फिर लहजा बदलकर कहने लगे -
'शीघ्र ही सत्ताधारी पक्ष के लोग यहाँ आएँगे। आप उनसे कहिए - हमें आश्वासन नहीं, हत्यारा चाहिए। जब तक हत्यारे पकड़े नहीं जाएँगे, हम चुनाव नहीं होने देंगे! ...मैं संसद में आपकी आवाज को बुलंद करूँगा।'
वे बैठ गए। सभा में शांति थी, अब स्थानीय नेताओं ने इस घटना पर दुख प्रकट किया। सभा समाप्त हुई।
इस छोटे-से गाँव की किस्मत में इतना सौभाग्य शायद गलती से लिख दिया गया। बनास नदी के तट पर यह गाँव, कुल दो हजार की आबादी। कुछ अहीर, कुछ हरिजन, कुछ कुम्हार; सभी श्रमजीवी। बेचारे मुश्किल से अपना पेट पालते थे। कुम्हार लोग मिलकर मुर्तियाँ बनाते। टेराकोटा की ये मुर्तियाँ विश्व-प्रसिद्ध तो थीं, लेकिन बेचारे कुम्हारों को इसका मोल क्या पता! यदाकदा कोई विदेशी आता, इनके चित्र खींचकर ले जाता, और ये गरीब, इसी में खुश। कुछ बिचौलिए इनसे सामान खरीदते और बढ़िया मुनाफे पे बेच देते।
गाँव में एक मात्र पढ़ा-लिखा था हरिया कुम्हार, जो शहर से बारहवीं कक्षा में फेल होकर गाँव आ गया था। हादसे के दिन वह गाँव में ही था। रात का समय था। हरिजन टोला में से वह गुजर रहा था, अचानक उसे कुछ खुसर-पुसर सुनाई दी, फिर एक लड़की की चीख, और थोड़ी देर बाद पूरे टोले में आग लगा दी गई। हरिया बेचारा भागा, और घर में अपने बापू और माँ को बताया -
'अरे देखो, वठे कई बेइरियो सब झोपड़ा बलरिया है। राख बेईग्या!'
'अरे दौड़ो-दौड़ो।'
आसपास के कुछ लोग दौड़े, लेकिन तब तक सब कुछ स्वाहा हो गया था। तब से ही हरिया कुछ उदास-सा हरिजन टोला की ओर देखता रहता। उस दिन विरोधी पक्ष की मीटिंग में भी वही बोला था; लेकिन बोलने से क्या होता!
गाँव के पटवारी, मास्टर और थाने को इसकी सूचना दी गई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तब हरिया ने शहर जाकर अखबार वालों से संपर्क साधा। ऐसी चटपटी खबर और उपचुनाव! अखबारवाले लपके आए। अपने फोटो-कैमरों और टेपरिकार्डरों से लैस होकर जब वे लोग गाँव में उतरे, तो गाँव में नया डर व्याप गया।
ये तो बाद में हरिया ने उन्हें समझाया, तब गाँववालों ने अखबारवालों को कुछ दबे-दबे शब्दों में बताया।
कुछ ही दिनों में देश के सभी अखबारों में समाचार आ गए। साप्ताहिकों ओर मासिकों ने भी अपना धर्म निभाया। प्रांतीय दैनिक समाचार-पत्रों के संपादकों ने संपादकीय लिख मारे, और अब बारी आई, विरोधी दलों की। एक दल फेरी लगाकर वापस जाता तो दूसरा फेरी लगाने को तैयार!
अफसरों, मंत्रियों, और नेताओं की चरण-रज स्वतंत्रता के बाद पहली बार इस गाँव में पड़ने लगी।
छोटा गाँव इनके आतिथ्य के भार से दबा जा रहा था। गाँव के लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्या और क्यों हो रहा है?
उस दिन विरोधी पक्ष की मीटिंग समाप्त होने पर गाँव के बुजुर्ग उदाबा के घर के बाहर गाँव के लोग इकट्ठे होकर आग तापने और बतियाने लगे -
'का रे खूमा, यो सब कईं वैइरियो? जीने देखो सोई धोवत्यों पकड़ने अठे आइरियों! 'अबे मूँ कई बताउँ बा! मने तो यूँ लागे के अणारी धोवती री लांग अबे खुलवा वारी है।'
'हाँ, यूइज दीखे। नी तो आज तक कोई नी आयो!'
'हो, अबे आपाँ देख रिया हाँ!'खूमा ने आग की ओर पाँव किए और तापने लगा। उदा ने आकाश की ओर देखा - कोई तारा टूटकर गिर गया।
'देख, वो आकाश में देख, कोई तारो टूटो है। अबे, जरूर कई न कई वेगा!'
'वेई तो वेई, अबे आपा कईं कर सकाँ!'
खूमा और उदा चुप हो रहे।
नाथू बेचारा दिन भर के परिश्रम से क्लांत था, लेकिन फिर भी बोल पड़ा -
'अणी भूरी ने कणी मारी। बापड़ी बारा तेरा साल रीजही।'
'कई केइ सका! कई-कई वेजा। अबे तो कई भरोसो इस नीरयो। मूँ भी अबे तो चुपचाप देखूँ।' खूमा ने कहा। उदा फिर भी उदास ही रहा। खूमा ने चिलम सुलगाकर कश खींचा और चिलम उदा की ओर कर दी।
'अबे थारी कई मरजी है? पुलिस आवेगा, आपाणा ब्यान लगा...'
'ब्यान-ब्यान लेगा ओर कई वेगा। भूरी तो पाछी आवेगानी!'
'पण अबे ब्यान कुण देगा।' खूमा ने धुआँ उगलते हुए कहा।
'अबे कंडी मोत आई जो ब्यान देगा, वे कई आपाने छोड़ देगा। आपाने ब्यान का झगड़ा में नी पड़नो।'
हरिया भी आकर बैठ गया था, कहने लगा -
'ब्यान तो देणा पडसी! आपाइस अगर ब्याण नी दांगा, तो फेर हत्यारों कूकर पकड़ाएगा?'
'अरे भाया, थू टाबर है, मत बच में पड! अणि राज-काज में मूँ पूरो डूबग्यो हूँ। खूमा ने बुजुर्गाना अंदाज में कहा।
'मारी पूरी दस बीगा जमीन ये खाई गया, माँ सब कई नी कर सक्या। सब सूअर, चोर ने बइमान हे।'
'जवार लाल के मरेया पाछो कोइ गत रो आदमी नी बच्यो है। ये तो गिद्ध है गिद्ध, जो आपाणी लास रो माँस भी नोच-नोचने खावेगा। ...आज भूरी री लास खावेगा, काले मारी और परसूँ थारी लास खावेगा!'
'पण काका' हरिया फिर बोला, 'आपाँने अन्याय के खिलाफ आवाज तो उठाणी पड़सी। जो आज हरिजनाँ के लारे ब्यो, वो ने अगर सजा कराई दो तो ठीक रहे।'
'थूँ नी समझेगा!' उदा ने उसे टोका - 'आपणे अठे गरीबी सब सूँ मोटो दोस है, और वणीरी सजा आपा सब भुगत रया है।'
'तो थाँ सब ब्यान नी दोगा?'
'हाँ, माणी मरजी तो कोई नी। ये तो ब्यान लेई ने पराजाई, पछे आपाँने रैणो तो अठेइज पड़ेगा।'
'तो पछे ठीक है। मूँ तो ब्याण दूँगा!'
'जसी थारी मरजी!'हरिया चल दिया। उदा, खूमा भी अपने-अपने घर चले गए।
जब से यह खौफनाक हादसा हुआ है, गाँव के लोग रात को बाहर नहीं निकलते, अपनी-अपनी झोंपड़ियों में आंतकित-से पड़े रहते हैं।
इधर रात-दिन मंत्रियों, अफसरों और नेताओं की गाड़ियों की आवाजाही के कारण परेशानियाँ और भी बढ़ गईं।
स्थानीय नेता और उपचुनाव के उम्मीदवारों ने तो अपना डेरा ही यहाँ डाल दिया, ताकि हर छोटी-बड़ी घटना का ध्यान रहे। कुछ पत्रकार भी किसी मसालेदार समाचार के इंतजार में यदाकदा इधर आ जाते। गाँव के शांत और सामान्य जनजीवन में एक तूफान -सा आ गया था, लेकिन गाँव वालों को इससे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ था। मक्का की रोटी और कच्चा कांदा-प्याज खानेवालों को किसी ने भी यह नहीं कहा कि अब गेहूँ की रोटी और सब्जी खाओ!
विरेाधी पक्ष की मीटिंग की पूरी रिपोर्ट मदन जी ने अपने अनुचरों से प्राप्त कर ली थी। वे राव साहब की कोठी पर यही सब बताने को इतने सवेरे आए हैं। अभी राव साहब टहलने को लान में आए ही हैं कि मदनजी ने दंडवत कर रपट सुनाने का अभियान प्रारंभ किया -
'विरोधी पक्ष के नेता रामास्वामी ने बहुत अच्छा भाषण दिया। ...ऐसी मीटिंग मैंने बरसों से नहीं देखी।'
'तुम स्वयं गए थे वहाँ?'
'जी हाँ! अगर रामास्वामी की मीटिंग का असर हा गया तो आपके प्रत्याशी के जीतने का कोई आधार नजर नहीं आता। लोगों में इस घटना को लेकर बड़ा रोष है; पूरा क्षेत्र ही एक होकर विरोध में जा रहा है। पूरे लोक-सभा क्षेत्र में घूमा हूँ मैं, सभी जगह सरकार के लिए केवल गालियाँ हैं।'
'हूँ...!' राव साहब कुछ नहीं बोले।
'तुम गाँव के बारे में कुछ बताओ।' - अचानक राव साहब कहने लगे।
'छोटा-सा गाँव है, और झगड़े की जड़ थी भूरी। कुछ लोगों का कहना है कि हरिया कुम्हार और हरिजन भूरी में कुछ प्यार-व्यार था, और इसी कारण कुम्हारों ने हरिजनों को जला दिया।'
'अच्छा...! रामास्वामी ने वहाँ क्या कहा?'
'मैं आपकी आवाज संसद में उठाऊँगा। मैं ये करूँगा, वो करूँगा। हमें भूरी के हत्यारे को पकड़ना है, आदि-आदि।'
'हूँ...!' फिर एक लंबी चुप्पी। राव साहब की यही आदत थी जो मदनजी को पसंद नहीं है; लेकिन क्या करें, कुछ तो सहना ही पड़ता है!
'अब विपक्षियों ने जिला मुख्यालय पर धरना देना शुरू कर दिया है। उन्होंने इस घटना को लेकर 'प्रदेश बंद' का आयोजन भी कर दिया है...!'
'हूँ...!'
'अगर ये सफल हो गए, तो यह सीट तो आपके हाथ से गई समझिए!'
'ऐसा नहीं होगा! एक काम करो, वहाँ पर ऐलान कर दो कि राव साहब स्वयं आएँगे और उनके दुख-दर्द सुनेंगे।'
'हाँ, अगर आप जाएँ तो हवा बदल सकती है।'
'और देखो, विरोधियों को विरोध प्रकट करने दो। लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह बहुत आवश्यक है। सभी अधिकारियों को आदेश दे दो कि ताकत का इस्तेमाल नहीं करें।'
'जी अच्छा!'
'अच्छा, अब जाओ!'
राव साहब ने अपने सचिव को बुलवाया, 'हम मोलेला जाएँगे, प्रोग्राम बनाओ! और सुनो, एक विशेष प्रेस-कॉन्फ्रेन्स बुलाओ।'
'जी...'
आनन-फानन में प्रधानमंत्री-निवास पर पत्र प्रतिनिधियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। प्रधानमंत्री आए और कहने लगे -
'जो कुछ मोलेला में घटित हुआ, वो तो आप सभी को मालूम ही है। मैंने घटना की न्यायिक जाँच के आदेश दे दिए हैं। मैं कानून और व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा हूँ। मैं स्वयं इस गाँव में जाकर दुखी और संतप्त लोगों से मिलूँगा, उनके बीच बैठूँगा, ताकि वस्तुस्थिति से वाकिफ हो सकूँ...'
'कुछ लोगों का कहना है कि भूरी की मौत में सत्ताधारियों का हाथ है।' - एक संवाददाता ने पूछा।
'बकवास है। उस गाँव में हम लोगों का क्या काम!'
'नहीं, कुछ स्थानीय नेता; जिनकी पहुँच उच्च पदासीनों तक है, इसके लिए जिम्मेदार बताए जाते हैं।' - एक संवाददाता जो मोलेला जाकर आया था, कहने लगा।
'नहीं, ऐसा नहीं हुआ! तुम लोग उलटे-सीधे वक्तव्य छापकर जनता को गुमराह करते हो।'
'तो क्या भूरी की मौत स्वाभाविक तरिके से हुई?'
'अभी मैं कुछ नहीं कहूँगा। जाँच की रपट आने दो। ...अच्छा!'
यह कह प्रधानमंत्री तेजी से अंदर चले गए। पत्र-प्रतिनिधि और विदेशी संवाददाताओं ने प्रधानमंत्री के साथ जाने के इरादे से अपने प्रोग्राम बनाए।
प्रधानमंत्री का काफिला तेजी से धूल उड़ाता हुआ मोलेला गाँव की ओर बढ़ रहा था।
गाँव के नजदीक आकर उन्होंने सामने से आते हुए एक अर्धनग्न ग्रामीण को देखकर गाड़ी रोकने का इशारा किया। तुरंत पूरा काफिला रुक गया।
उन्होंने ग्रामीण को पास बुलाया। ग्रामीण हक्का-बक्का, डरते-डरते उनके पास आया-
'खमा अन्नदाता, घणी खम्मा! जै रामजी की!'
'जै रामजी की!' राव साहब ने कहा, 'कहो भाई, ठीक तो हो?'
'हाँ, हुजूर!'
'देखो, तुम्हारे शरीर पर कपड़ा नहीं है; तुम यह कमीज पहन लो!' यह कहकर राव साहब ने अपनी कमीज उतारी और ग्रामीण को दे दी। बेचारा ग्रामीण असमंजस में पड़ गया - क्या करे क्या न करे!
स्थानीय नेता जोशी ने कहा, 'अरे, ले लो! हुजूर मेहरबान है साले!' और ग्रामीण ने कृतकृत्य होकर कमीज पहन ली। साथ वाली बच्ची को राव साहब ने पुचकारा और ब्रेड के टुकड़े खाने को दिए। बच्ची ने कभी ब्रेड देखी नहीं थी; समझ न पाई कि इसका क्या करे।
इस बार भी स्थानीय नेता ने उबारा -
'खा ले... खा ले... खाने की है!'
'अच्छी है।'
ग्रामीण और उसकी पुत्री अपने रास्ते चल दिए।
राव साहब ने नई कमीज पहनी और काफिला आगे चला।
कुछ समाचार पत्रों ने राव साहब की दानशीलता का ऐसा चित्र खींचा कि स्वयं कर्ण भी शर्मा गया।