रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट / बलराम अग्रवाल

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बहुत कम लोग जानते है कि जिब्रान अनेक बार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले। 16 दिसंबर 1916 को लिखे एक पत्र में उन्होंने मेरी हस्कल को बताया — “मैं टैगोर से मिला। उनको देखना और उनके साथ रहना रोमांचित करता है। उनकी वाणी ने मेरे भीतर बेचैनी भर दी।” 3 जनवरी 1917 के पत्र में उन्होंने लिखा — “… वह भारतीय अपने देश का समूचा सौंदर्य और आकर्षण अपने में समेटे है। टैगोर ईश्वर की पूर्ण कृति हैं।” टैगोर से एक अन्य मुलाकात के बाद 12 जनवरी 1917 के पत्र में उन्होंने मेरी को लिखा कि पढ़ने के लिए उसे वह ‘कुछ और बोधकथाएँ’ भेज रहे हैं। उन्होंने लिखा कि ‘ईश्वर पर लिखी कविता मेरे समूचे अहसास और चिंतन को व्यक्त करती है।’ जिब्रान की अनेक अवधारणाएँ टैगोर के चिंतन से मेल खाती हैं।

18 दिसंबर 1920 के अपने जर्नल में मेरी ने खलील के हवाले से लिखा था — “… एक डिनर पार्टी में टैगोर से बातचीत की। जानती हो, टैगोर ने अमेरिका को पूँजी पर खड़ा दृष्टिहीन देश कहा… ” सुहैल बुशरई ने लिखा है — ‘अमेरिका के बारे में टैगोर के इस कथन से जिब्रान सहमत नहीं थे। लेकिन कुछ ही माह बाद उन्होंने शिकायत की कि ‘अमेरिका पूँजीखोर बन गया है’। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि ‘द मैडमैन’ की एक समीक्षा में लिखा गया था कि ‘… द मैडमैन में संकलित काव्यकथाएँ टैगोर के लंबे उत्प्रेरक गीतिकाव्य की याद दिलाती हैं।’’ टैगोर ने 1912-13, 1916-17, 1920-21, 1929 और 1930 में अमेरिका की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं की बदौलत अनेक अमेरिकी भारतीय चिंतन और संस्कृति से तथा उसके आधुनिक परिप्रेक्ष्य से परिचित हुए। स्टीफन हे (Stephen Hay) ने लिखा है कि टैगोर की उक्त यात्राओं के दौरान दिए गये उनके व्याख्यान उपनिषदों, वेदों, गीता और बुद्ध-सिद्धांतों पर आधारित हैं तथा ‘साधना’ नामक पुस्तक में संकलित हैं।


अन्य प्रभाव

जिब्रान की सूक्तियाँ, भावकथाएँ और बोधकथाएँ भारतीय दर्शन के साथ-साथ सूफी बुद्धि-चातुर्य के भी बहुत निकट ठहरती हैं। सूफी अरब-कवि जलाल अल-दीन रूमी (Jalal al-Din Rumi) का भी प्रभाव उन पर पड़ा। भारतीय दर्शन के अतिरिक्त उनके लेखन पर जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (Friedrich Nietzsche) तथा मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव यंग (Carl Gustav Jung) के विचारों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। वे बहाई दर्शन से भी प्रभावित थे। 19 अप्रैल 1912 को जिब्रान ने बहाई संप्रदाय के संस्थापक बहाउल्ला के सुपुत्र और संप्रदाय के तत्कालीन ‘मास्टर’ अब्दुल-बहा का चित्र अपने स्टुडियो में बैठाकर पेंसिल व चारकोल से स्कैच किया था। उस अनुभव को अपने एक पत्र द्वारा उन्होंने मेरी के साथ इन शब्दों में साझा किया — ‘अब्दुल-बहा की उपस्थिति में मैंने अदृश्य को देखा और अपने खालीपन को पूरा भरा पाया।’

स्वभाव से जिब्रान नम्र, मौनप्रिय, भावुक, अच्छे श्रोता, स्त्री अधिकारों के पक्षधर और सकारात्मक आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे। नि:संदेह, उनके लेखन व चित्रण में मुस्लिम दर्शन की परिपक्वता का, सूफी, बहाई, हिन्दू और बुद्ध दर्शन में व्यक्त आध्यात्मिकता का, जीसस व मुहम्मद की प्राचीन शिक्षाओं का तथा ब्लेक, नीत्ज़े, कीट्स, यीट्स, व्हिटमैन, इमर्सन और अपने समय के अन्य अनेक चित्रकारों व आधुनिक चिंतकों के रोमांचक सौंदर्य का संगम मिलता है।