रेत भाग 3 / हरज़ीत अटवाल
स्कूल में मैंने करीब दो साल ही लगाये। पढ़ने मे मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। इन दो-ढाई सालों में मैं अंग्रेजी पढ़ने और बोलने योग्य हो गयी थी। स्कूल में अधिकांश छात्र गुजराती थे, इसलिए दिल भी अधिक नहीं लगता था। पंजाबी छात्र तो हम तीन ही थे। गुजरातियों के दिन-त्यौहार स्कूल में मनाये जाते। एक गुजराती लड़का बंगी मेरे साथ कुछ अधिक ही बातें किया करता। मेरे पास आकर बैठता। जब उसने मुझे हाई रोड पर मिलने का न्यौता दिया तो मुझे कुछ होश आया कि अगर डैडी को पता चल गया तो क्या होगा। इसके बाद मैंने बंगी से कतराना शुरू कर दिया।
स्कूल छोड़ते ही मुझे हाई रोड पर एक स्टोर में काम मिल गया। स्टोर के मालिक से डैडी ने पहले ही बात कर रखी थी। हाई रोड हमारे घर से दूर नहीं था। मैं पैदल ही काम पर चली जाती। काम पर मेरा दिल लग गया। स्टोर वाले मेरे काम से खुश थे। मैं अन्य लड़कियों की तरह बातों में समय नहीं गंवाया करती थी। जो काम मुझे सौंपा जाता, मैं ध्यान लगाकर कर देती। उन्होंने जल्द ही मुझे टिल्ल (गल्ले) पर लगा दिया, जहाँ मैं ग्राहक भुगताने का काम करती। मेरा काम देखकर वे मुझे ओवर-टाइम पर भी बुला लेते।
मम्मी भी काम पर जाती और डैडी भी। नीता मेरे से पाँच बरस छोटी थी। बिन्नी तो उससे भी छोटा था। जब हम इंग्लैंड आये थे, उस वक्त उसने अभी बोलना भी शुरू नहीं किया था। वे दोनों अब स्कूल जाते थे। स्कूल करीब होने के कारण वे स्वयं ही चले जाते।
डैडी गुरुद्वारे के प्रेमी थे। हमारा इतवार का दिन गुरुद्वारे में बीतता। अगर किसी इतवार डैडी का ओवर-टाइम लगना होता तो हम शाम का लंगर खाने गुरुद्वारे जाते, पर जाते अवश्य। डैडी हर रोज पाठ करते। उन्होंने मुझे गुटका ला दिया। लेकिन, मुझे पाठ करना अच्छा न लगता। कभी-कभी मम्मी भी पाठ किया करती। वह डैडी की तरह नित्य-नेमी नहीं थी। कभी मम्मी मुझे भी पाठ के अर्थ बताने लगती। कोई साखी सुनाने लग जाती। डैडी ने पाठ की कैसेट लाकर रखी हुई थी। कई बार सवेरे-शाम वह कैसेट लगा देते। घर में पाठ का स्वर मुझे अच्छा लगता, पर मेरे से गुटका पढ़ा न जाता।
हमारे यहाँ आने से पहले ही डैडी ने एक कार खरीद रखी थी, पर उसे चलाते बहुत कम थे। जब कभी गुरुद्वारे या किसी के घर जाना होता, तभी चलाते। नहीं तो कार घर के बाहर ही खड़ी रहती। कार चलाने को मेरा बहुत दिल करता। मेरे संग काम करतीं लड़कियों के पास कारें थीं। डैडी से कहकर मैं भी कार चलाना सीखने लगी। कई बार टैस्ट भी दिया, पर पास न हो सकी। वैसे डैडी कहते थे कि मैं कार बढ़िया चला लेती थी।
एक दिन, मैं काम पर से लौटी तो घर में डैडी का कोई दोस्त आया बैठा था। मैं उन्हें ‘हैलो’ कहकर रसोई में चली गयी। पीछे-पीछे मम्मी आ गयी और कहने लगी, “तेरे लिए लड़का बता रहे हैं।"
“रहने दे मम्मी, मैंने नहीं करना विवाह।"
“क्यों नहीं करना?”
“मैं… मैं अभी तैयार नहीं।"
“बेटी, विवाह तो करवाना ही है, एक साल आगे या एक साल पीछे। तेरे डैडी चाहते हैं कि तेरा विवाह जल्दी हो जाये।"
बाद में मम्मी ने बताया कि डैडी ने ‘ना’ कर दी है क्योंकि उन्हें रिश्ता पसन्द नहीं था। लड़का कद में छोटा था।
एक दिन मम्मी मुझसे पूछने लगी, “कंवल, ज़रा सोचकर बता कि किस तरह का लड़का चाहिए तुझे।"
मैं बगै़र सोचे ही बोली, “जो पगड़ी न बांधता हो।"
मम्मी ने दोनों हाथों से मुझे हल्के से धौल मारा, कभी-कभी वह ऐसे ही किया करती है। बोली, “तेरा बापू पगड़ी बांधता है!”
“ये तो डैडी हैं, डैडी तो तुझे पगड़ी के साथ ही मिले थे, मेरे पास तो चुआइश है अभी।"
“यह तो ठीक है, तेरे डैडी कहते हैं कि कंवल की मर्जी के बग़ैर विवाह नहीं करना।"
क्रिसमस पर हमारा इंडिया जाने का प्रोग्राम बन गया। डैडी ने मेरा काम छुड़वा दिया। मम्मी के अनुसार डैडी कहते थे कि अगर कोई लड़का पसन्द आ गया तो वे मेरा विवाह कर देंगे। इसके लिए पता नहीं कितनी देर इंडिया में रहना पड़े। नहीं तो फिर से काम कर लेगी। इस स्टोर में नहीं तो किसी दूसरे स्टोर में काम मिल जाएगा।
हम इंडिया पहली बार गये थे। डैडी का चक्कर लगता रहा था, पर जब से हम इधर (लंदन) आये थे, अब ही जाना हुआ था हमारा। इंडिया जाना बहुत अच्छा लगा। आसपास अपना-अपना-सा लग रहा था। सारे चाचा-ताऊ और उनके बेटे-बेटियाँ हमारे साथ कुछ अधिक ही मोह कर रहे थे। सब अलग-अलग रहते थे, पर हमारे इंडिया आने पर सब एक जगह पर इकट्ठा हो गये। एक ही जगह पर रोटी बनने लगी। विवाह जैसी रौनक लगी रहती। गाँव के लोग भी मिलने के लिए आते रहते। मुझे सबसे प्यारी गुलाबां बुआ लगती। बुआ हर समय मेरे साथ रहती। अन्दर-बाहर जाने से लेकर सोने तक हम इकट्ठा रहते । बुआ कितनी ही छोटी-छोटी बातें मेरे साथ करती। हमारा प्यार देखकर मम्मी भी ईर्ष्या करने लगी थी। एक दिन, बुआ मेरे पास से हटी तो मम्मी कहने लगी, “देख तो ज़रा, गज भर की ढाक(कमर, पार्श्व) है, चाहती तो दर्जन भर बच्चे जन देती, पर यह तो कलमुंही रूठकर यहाँ आयी बैठी है।"
मुझे मम्मी की बात अच्छी न लगी। बुआ की अपने पति से बनी नहीं थी, इसलिए उसे छोड़ आयी थी और लौट कर ससुराल नहीं गयी थी। अब वह हमारे हिस्से वाले घर में रहती थी, लेकिन पूरे परिवार में बुआ का सत्कार होता था, किसी ने माथे पर शिकन नहीं आने दी थी। मम्मी शायद मेरे सामने ही ये शब्द बोल रही थी।
बुआ ही मुझे बताती कि कितने जोर-शोर से मेरे लिए लड़का ढूँढ़ा जा रहा था। जहाँ कहीं कोई बताता, डैडी और ताऊ जी कार लेकर दौड़ पड़ते। पर कोई भी लड़का उन्हें पसन्द नहीं आ रहा था। बुआ बड़े प्यार से मेरी गाल पर हाथ फेरते हुए कहती, “हमारी बेटी के लिए तो कोई राजकुमार ही चाहिए।"
एक दिन डैडी बहुत खुश-खुश घर लौटे। बुआ बताती थी कि जालंधर लड़का देखने गये थे। सारे आदमी बैठकर सलाह करने लगे। बाबा जी कह रहे थे, “न भाई, ये दुआबे वाले अच्छे नहीं होते, इधर ही अपनी बिरादरी का कोई लड़का मिल जाएगा, थोड़ा सब्र रखो।"
“बापू जी, वहाँ (इंग्लैंड में) हम दुआबियों के बीच ही रहते हैं, कोई फर्क नहीं होता। तुम सब पहले लड़के पर ज़रा नज़र तो डाल लो, फिर कहना।" मैं और बुआ दरवाजे की ओट में खड़ी थीं। बुआ ने मेरे चिकोटी भरी। मैं भी अब तक विवाह का सपना देखने लग पड़ी थी।
सबने जा कर लड़का देखा। अपनी-अपनी तसल्ली की। मम्मी और बुआ भी हो आए। बुआ बहुत खुश थीं, मम्मी भी उसकी तारीफें करती रही। डैडी ने मुझे अपने पास बुला कर कहा, “देख बेटा, हमने तेरे लिए लड़का देखा है। हम तब तक कोई हाँ नहीं करेंगे, जब तक तुझे पसन्द न हो। तू मम्मी और गुलाबां के संग जाकर देख आ और हमें आकर बता।"
मैं कुछ न बोली। बोलती भी क्या, मुझे तो शर्म ही आये जा रही थी। मेरा मन तो करता था कि एक बार लड़का देख लूँ, पर फिर सोचती कि जब सब इतने खुश हैं तो लड़का ठीक ही होगा। मैंने मम्मी से कह दिया कि मुझे लड़का नहीं देखना। लेकिन, डैडी जिद्द कर रहे थे कि मैं लड़के को देखूँ और उससे कुछ बातें अवश्य करूँ। हम जालंधर पहुँचे। किसी होटल में सब इकट्ठा हुए। लड़के के साथ उसकी माँ और बहन थी। रास्ते में मैंने मन बना लिया था कि लड़के से दो-एक प्रश्न पूछूँगी और कहूँगी कि मुझे इंडियन पत्नी नहीं बनना, अपने बराबर समझना है तो विवाह करवाये। पर इतनी भीड़ में कोई बात न हो सकी। लजाते-लजाते दो-एक बार उसने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। मुझे वह बहुत खास भी नहीं लगा कि मैं खुशी में उछल पड़ती, पर इतना बुरा भी नहीं था। ठीक-ठाक था। मैंने वहीं ‘हाँ’ कर दी। सभी इतने खुश थे कि मैंने ‘हाँ’ करना ही ठीक समझा।
पहले मुझे विवाह का चाव नहीं था, पर अब चढ़ने लगा था। जैसे-जैसे विवाह निकट आ रहा था, वैसे-वैसे वह लड़का मुझे सुन्दर लगने लगा। मेरा मन होता कि उससे एक बार मिलूँ ताकि जी भरकर देख सकूँ। उस दिन तो ठीक से देख भी नहीं सकी थी। मैं जानती थी कि जालंधर बहुत दूर था। दरिया पार करके जाना पड़ता था। अगर कहीं नज़दीक होता तो बुआ को संग लेकर उसके कालेज चली जाती, जहाँ वह पढ़ता था।
मुझे विवाह से कभी डर नहीं लगता था, पर ताऊ जी की बहू बहुत डराती। तरह-तरह की कहानियाँ सुनाने बैठ जाती। मुझे लगने लगता कि न जाने मेरा क्या होगा। मेरा पति पता नहीं कैसा होगा, ससुराल वाले कैसे पेश आएँगे मेरे साथ। पर मेरा डर निरा डर ही रहा। सब कुछ ठीक था। मेरी सास और ससुर बहुत अच्छे थे। घर के अन्य सदस्य भी। रवि तो मुझे बहुत पसन्द था। विवाह के बाद मुझे मालूम हुआ कि विवाह एक खूबसूरत चीज़ थी। यह तो एक बहुत बढ़िया और आनन्दमयी हादसा था, बेशक पहले ही घटित हो जाता।
विवाह के बाद मेरी ज़िन्दगी ही बदल गयी। हर चीज़ मेरे लिए बिलकुल नई हो गयी। मुझे आसपास का वातावरण बहुत प्यारा-प्यारा-सा लगा। ससुराल का छोटा-सा घर था, पर अच्छा लगता था। ससुराल में अगर कुछ अच्छा नहीं लगा था तो उनकी बोली। जो भी आता, अजीब-सी बोली बोलता। कई बार समझ में ही नहीं आता कि क्या कहा जा रहा है। सब लोग कुछ और ही तरह से बोलते।
मैंने अपनी अथाह खुशी मम्मी के साथ साझी की, तो वह खीझती हुई बोली, “रहने दे कंवल, ज्यादा न मचल, सारी दुनिया के ही विवाह होते हैं, हिसाब से ही खुशी ज़ाहिर की जाती है।"
बुआ रवि को देखकर बहुत खुश होती और कहती, “अपने मर्द को सम्भाल कर रखना कंवल, ऐसे मर्द कहाँ मिलते हैं! अच्छे मर्द डिबिया में डालकर रखने पड़ते हैं। पकी हुई फसल की तरह हर समय इनकी रखवाली करनी पड़ती है।" मेरे आसपास पतिनुमा लोगों की संख्या अधिक नहीं थी। हमारे मामा की बेटी शमिंदरजीत का पति भगवंत ही था। वह मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता था। हर समय बुझा-सा रहता। किसी से हँसकर बात न करता। शमिंदरजीत की किसी खुशी का ध्यान तो वह रखता ही नहीं था। और जहाँ कहीं भी सुनने को मिलता, सब औरतें भारतीय पतियों की बुराई करते न थकतीं। मेरे पर यही प्रभाव था कि हमारी स्त्रियाँ, पत्नियाँ कम और गुलाम अधिक होती हैं। पर रवि का व्यवहार कुछ अलग था। वह आम पति से हटकर था। यद्यपि वह कालेज में एम.ए. का विद्यार्थी था, पर व्यवहार मंं बहुत गम्भीर था।
मेरे विवाह के बाद डैडी ने जब मुझे बहुत खुश देखा तो उन्होंने अपनी वापसी की तैयारी कर ली। उनके लौट जाने के बाद, मैं महीना भर इंडिया में रही, फिर मैं भी लौट आयी। कुछ महीनों के बाद रवि भी आ गया। ये कुछ महीने मेरे लिए कुछ साल जैसे थे। मुझे लगता था, जैसे मैं काफी समय से अकेली होऊँ।
रवि आया तो पूरे घर में एक नई महक भर गयी। वह हर समय छोटे-छोटे मजाक करता रहता। घर के छोटे-मोटे काम दौड़-दौड़ कर करता। स्वयं को घर का एक जिम्मेदार सदस्य समझता। डैडी उससे खुश थे। मम्मी को तो वह बहुत पसन्द था। मम्मी हर समय कहती रहती, “कंवल, तू बड़ी लक्की है, ऐसे लड़के कहाँ मिलते हैं आजकल!”
रवि को कारों की किसी फैक्टरी, जो कि डैग्नम में थी, में काम मिल गया था। दो हफ्ते दिन और दो हफ्ते रात। फिर, रवि ने फैक्टरी के अन्दर ही कोई कोर्स कर लिया और उसकी ड्यूटी स्थायी रूप से दिन की हो गयी। यह फैक्टरी घर से काफी दूर थी, पर वहाँ तनख्वाह काफी थी। फिर, रवि के कुछ मित्र भी वहाँ काम करते थे। आने-जाने की तकलीफ़ के बावजूद रवि वहाँ खुश था। वहाँ उसका मन रमा हुआ था।
रवि काम से कभी जी नहीं चुराता था। सप्ताह भर फैक्टरी में काम करके ‘वीक एंड’ पर किसी दोस्त के साथ मार्किट लगवाने चला जाता। रवि को डैडी के घर रहना अच्छा न लगता। वह कई बार कह चुका था कि किराये पर कोई कमरा ले लेते हैं, लेकिन डैडी नहीं मानते थे। जब रवि ऐसी बात करता तो मम्मी उससे नाराज हो जाती। मम्मी मुझे किराये के मकान में रहते नहीं देख सकती थी।
इन्हीं दिनों में रवि ने ड्राइविंग का टैस्ट पास कर लिया। उसके साथ ही मैंने भी टैस्ट के लिए अप्लाई कर दिया। मैं भी पास हो गयी। टैस्ट पास करने के बाद रवि एक कार भी कहीं से ले आया। डैडी वाली कार अब तक खड़े-खड़े ही खराब हो गयी थी। उसकी एम.ओ.टी. करवाने ले गये तो उसमें जगह-जगह ज़र लगा मिला। यूँ ही फेंकनी पड़ी थी डैडी की कार।
एक ओर घर में सब खुश थे तो दूसरी ओर डैडी का मूड बदलने लगा। वह रवि से खफ़ा-खफ़ा से रहने लगे। रवि कार में सबको इधर-उधर घुमाता रहता, पर डैडी उसके साथ कम ही बैठते। ‘वीक एंड’ पर गुरुद्वारे तक ही जाते। मैं डैडी को कुरेदने का यत्न करती कि उनके मन में क्या है, पर वे कुछ न कहते। एक दिन, वह मुझसे पूछने लगे, “तुम लोग पैसे भी जोड़ते हो कि कारें ही खरीदे जाते हो।"
यह बात तो मैंने कभी सोची ही नहीं थी। उन्होंने फिर कहा, “कितने पैसे हैं तुम्हारी बुक में?”
“पता नहीं डैडी।"
“पता रखा कर न... मुझे तो लगता है, इसने ये कार खरीद ली है और बाकी के इंडिया भेज रहा है।"
यह सच था कि रवि इंडिया में पैसे भेजता ही रहता था। यह बात तो उसने मुझे विवाह के बाद ही बता दी थी कि उसके घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। अब न उसने मुझे कुछ बताया था और न ही मैंने कभी पूछा था। मैं फिर से उसी स्टोर में काम करने लगी थी और सारी तनख्वाह लाकर रवि को दे देती थी। अगर रवि इंडिया में पैसे भेजता भी था तो मुझे एतराज नहीं था। डैडी बोले, “हम चाहते हैं कि तुम डिपोजिट लायक पैसे जोड़कर अपना घर लो। अगर यह इसी तरह सारी तनख्वाहें इंडिया भेजता रहा तो फिर ले लिया घर!”
मुझे डैडी की बात ठीक लगती थी। इंडिया में तो जितने भी भेज दो, उतने ही कम होते हैं। मैंने घर लेने की बात रवि से की तो वह कहने लगा, “जान, यह साल तो हमें इंडिया के लेखे ही लगना है। अगले साल डिपोजिट लायक हो जाएँगे और घर ले लेंगे।"
मैंने यह बात डैडी को बताई तो वह आग-बबूला होकर बोले, “यहाँ फ्री में रहता है, न किराया, न रोटी का कुछ, हम तो सोचते थे कि घर ले लोगे, पर इसे तो पीछे वालों की ही चिंता पड़ी है।"
“डोंट वरी डैडी, आइ विल टॉक टू हिम।"
डैडी कुछ सोचते हुए कहने लगे, “नहीं, तू कोई बात न करना। बस, तू घर लेने की बात कर, घर ले लिया तो खुद ही कुछ नहीं बचेगा। किस्त और बिल ही सांस नहीं लेने देंगे।"
मुझे तो याद ही नहीं था, डैडी ने ही याद दिलाया कि विवाह से पहले मेरे द्वारा जोड़े गये पन्द्रह सौ पोंड यूँ ही पड़े थे। मेरे विवाह पर खर्च करने के लिए सुरक्षित रखे थे, पर बच गये थे। इतने पोंड घर के डिपोजिट के लिए काफी थे। मैंने रवि से कहा, “रवि, क्यों न हम अपना घर ले लें। डैडी के घर में घर जैसी फ्रीडम नहीं है।"
“यह तो ठीक है, पर मैंने बताया था न कि इस बार डिपोजिट के लिए पैसा नहीं जोड़ सकेंगे।"
“डिपोजिट हम डैडी से बोरो कर लेते हैं।"
“नहीं जान, कुछ भी बोरो नहीं करना, सब कुछ अपने बलबूते ही करना है।"
“कीमतें न बढ़ जाएँ कहीं।"
“हम क्या कर सकते हैं, लॉट आफ पीपल आर विदाउट हाउस।"
मैं पुन: डैडी से डिपोजिट के लिए पैसे ले लेने की बात करती तो रवि खीझ उठता। अन्त में, मुझे बताना ही पड़ा कि ये पैसे मेरे अपने ही थे, डैडी के पास।
रवि ने रोज़बरी गार्डन में घर पसन्द कर लिया। यह आर्च-वे स्टेशन के नज़दीक था। रवि ने काफी घूमने के बाद इसे पसन्द किया था। घर देखते समय वह कई बातों को ध्यान में रखता, मेरे संग विचार-विमर्श करने बैठ जाता। इस पर मैं कह देती, जैसा चाहो वैसा कर लो। मुझे मालूम था कि मेरी पसन्द उसकी पसन्द ही होगी। मम्मी चाहती थी कि हम उनके नज़दीक ही घर खरीदें, पर रवि को यह इलाका पसन्द नहीं था।
घर ले लिया। लेकिन, यहाँ से मुझे मेरा काम दूर पड़ता था। हालाँकि सीधी बस जाती थी, फिर भी मैंने छोटी ‘निसन’ कार ले ली। लेकिन, घंटा भर आने-जाने पर ही खर्च हो जाता। इसी तरह रवि का काम भी यहाँ से और अधिक दूर हो गया था। पर हम खुश थे। यहाँ आकर हम एक-दूजे के और अधिक करीब हो गये थे। शीघ्र ही, हमने अपना घर सैट कर लिया। रवि को इस घर की एक खिड़की बहुत अच्छी लगती थी। जब देखो, वहीं खड़ा रहता। इसमें से लंदन दिखाई देता था। मुझसे अधिक उसे लंदन देखना अच्छा लगता था। मुझे यहाँ से पत्थर के जंगल के अतिरिक्त कुछ दिखाई न देता। वह दूरबीन लेकर इमारतें पहचानता रहता। मुझे घर के काम करने बड़े कठिन लगते थे। रवि रसोई में मेरी मदद करवा देता। खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने तक वह सारे काम कर देता। ऐसे कामों से तो वह मम्मी के घर में भी पीछे नहीं हटता था। मम्मी उसे टोकती रहती, पर वह रसोई में जाकर कोई न कोई काम करने लगता।
रवि को सोते समय चाय की आदत थी। पहले सभी उसकी इस आदत पर हँसते थे, पर बाद में घर में हर रात ही सोने से पहले चाय बनने लगी। मम्मी-डैडी को भी रात की चाय पीने की आदत पड़ गयी। यही नहीं, रवि ने हम सबकी प्याज खाने की आदत भी बदल दी। रवि मुझे यह कहकर कच्चा प्याज न खाने देता कि रात में मुँह में से बदबू आती रहती है। डैडी को पता चला तो उन्होंने भी मम्मी को प्याज खाने से रोक दिया।
रवि को किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। सोने से पहले किताब खोल लेता। बाथरूम में भी उसकी किताबें पड़ी होंती। वह साउथाल जाकर किताबें खरीद लाता। इंडिया से भी मंगवाता रहता। पहले मुझे लाइट में नींद नहीं आती थी लेकिन बाद में, मुझे लाइट में सोने की आदत-सी पड़ गयी। जब मेरी आँख खुलती तो रवि बैठ कर पढ़ रहा होता। मैं खीझ उठती कि इसे कौन-सी परीक्षा देनी थी। फिर, आहिस्ता-आहिस्ता उसने मुझे भी पढ़ने की लत लगा दी। वह मुझे नावल पढ़ने को देता। पढ़ने का अभ्यास न होने के कारण मुझे शुरू-शुरू में बेहद उकताहट होती। पंजाबी तो मैं भुला ही बैठी थी। नावल पढ़कर वह मेरे साथ उसकी कहानी पर बातें करता। फिर, मेरी भी पढ़ने में पूरी रुचि हो गयी। पंजाबी के बहुत से और अंग्रेजी के कुछेक उपन्यास मैंने पढ़े।
हमारा जीवन बहुत बढ़िया चल रहा था। अपने घर में यद्यपि काम कुछ अधिक करना पड़ता, पर फायदे भी थे। डैडी के कहने के मुताबिक हमारा खर्चा इतना बढ़ गया था कि दोनों के वेतन में बमुश्किल गुजारा होता। अब बचत करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। अगर कोई मेहमान आ जाता तो सारा बजट ही गड़बड़ा जाता था। बाकी सब ठीक था, केवल रवि के जिद्दी स्वभाव को छोड़कर। यदि किसी बात पर अड़ गया तो यूँ ही अड़ गया। घर में व्यर्थ का तनाव खड़ा हो जाता। मम्मी के घर में कोई जिद्द करता तो मम्मी मुझे ‘गुलाबो जैसी’ कहकर कोसती। लेकिन, रवि के सामने मेरी जिद्द कुछ भी नहीं थी। कुछ भी हो, उसका यह स्वभाव मेरे लिए कभी सिरदर्द नहीं बना था। मैंने उसे मना लेना सीख लिया था। जब वह सही मूड में होता तो बड़े से बड़ा बोझ वह हँसकर सह लेता।
इस नये घर में आने के बाद साल भर के अन्दर ही परी का जन्म हुआ। मम्मी को लड़के की उम्मीद थी इसलिए वह अधिक खुश नहीं थी। लेकिन, रवि बहुत खुश था। डैडी भी खुश थे। नीता और बिन्नी के लिए तो परी एक खिलौने की तरह थी।
विटिंग्टन अस्पताल से जहाँ परी का जन्म हुआ था, परी को लेकर मैं सीधे मम्मी के घर चली गयी थी, क्योंकि पहला बच्चा होने के कारण मेरे से उसकी सही देखभाल नहीं हो सकती थी। रवि ऐसा नहीं चाहता था। जब मैंने सारी मुश्किलें उसे बतायीं तो वह मान गया। परी का नाम प्रतिभा रवि ने रखा था। डैडी चाहते थे कि गुरुद्वारे जाकर ‘वाक’ लेकर कोई नाम रखा जाए, पर रवि ने यों ही नाम रजिस्टर करवा दिया। मम्मी से ‘प्रतिभा’ का उच्चारण नहीं होता था, उसने ‘परी’ ही कहना शुरू कर दिया और इस तरह उसका नाम परी ही पड़ गया।
करीब दो सप्ताह बाद परी को हम अपने घर ले आये। परी के घर आने की खुशी में रवि ने पूरे घर को सजा रखा था। मम्मी उसे कहती, “पुत्त, कुड़ियों को लेकर इतनी खुशी नहीं मनाते, ये पीछा नहीं छोड़ा करतीं।"
बिन्नी का जन्मदिन था। हम सभी बैठे थे। कुछ मेहमान भी आये हुए थे। बिन्नी ने अपने दोस्तों को भी बुला रखा था। रवि और भगवंत व्हिस्की पी रहे थे। रवि अधिक नहीं पिया करता था, पर भगवंत रोज़ पीने का आदी था और कई बार लुढ़क जाता था। शमिंदरजीत मेरे पास बैठी घबरा रही थी। डैडी चुपचाप एक ओर बैठे थे। मैंने डैडी की ओर देखा तो एकाएक मेरा ध्यान उनके बायें हाथ की ओर गया, जो अपने आप हिल रहा था। फिर डैडी ने दायें हाथ से उसे रोक लिया। मुझे लगा कि पार्किन्सन डिज़ीज जैसा कुछ था। मैंने और गौर से देखा, उनका तो बायां पैर भी हिल रहा था। मैंने मम्मी को दिखाया तो वह मुझे उठा कर एक ओर ले गयी।
उसे डैडी ने पहले ही बता रखा था। मैंने पूछा, “तूने मुझे क्यों नहीं बताया?”
“तेरे डैडी कहते थे, यूँ ही फिक्र करेंगे।"
फिर, मम्मी रोने लगी, “अब नीता का क्या होगा?... बिन्नी तो अभी बहुत छोटा है।"
“रो न मम्मी, हौसला रख, मैं जो हूँ।"
“बेटी, तू अपने घर है।"
हमें उठ कर जाते हुए रवि ने देख लिया था। वह भी हमारे पास आ खड़ा हुआ। डैडी के हिलते हाथ को उसने भी देख लिया था। मम्मी को हौसला देते हुए वह बोला, “चिंता न करो मम्मी, हमारे होते हुए तुम्हें किसी किस्म की चिंता करने की ज़रूरत नहीं।"
जन्मदिन की पार्टी का सारा मजा ही जाता रहा। मुझे डैडी की सेहत की बहुत चिंता थी। मम्मी ठीक कहती थी, बिन्नी तो अभी बहुत छोटा था, नीता भी नासमझ ही थी। मम्मी तो पहले ही सीधी-सरल थी। डैडी को ऐसी बीमारी लग गयी थी जिसका कोई इलाज नहीं था। मैं इस बीमारी के बारे में थोड़ा-बहुत जानती थी कि अभी तक इसका कोई इलाज नहीं निकला था।
घर लौटे तो रवि बोला, “जान, तू वरी न कर। हम जो हैं, जितनी भी हो सकेगी, हैल्प करेंगें और फिर, यह कौन-सा इंडिया है। यहाँ तो सारी सुविधाएँ हैं।" “पर उनके बच्चे भी अभी छोटे हैं।"
“धीरज रख, हम जितना भी कर सकते हैं, करेंगे।"
मुझे रवि की बातों से तसल्ली नहीं हो रही थी। उसके शब्दों में पूरी हमदर्दी नहीं झलक रही थी। पता नहीं क्यों, मुझे लग रहा था कि जैसे वह मेरे डैडी के बारे में नहीं, किसी पराये आदमी के बारे में बात कर रहा था। डैडी के साथ अब उसकी अधिक नहीं बनती थी। रवि को किसी की सलाह अच्छी नहीं लगती थी, जबकि डैडी कई बार उसे समझाने बैठ जाते थे।
मैंने न जाने कितनी ही किताबें पार्किन्सन डिजीज पर पढ़ डालीं। रवि भी पढ़ता और सिर मारकर कहता, “डैडी, हैज टू लिव विद दिस नाउ।"
मुझसे उसकी बात सुनी न जाती। मैं खीझ उठती। डैडी को भी अपनी सेहत की चिंता थी। उनके हाथ-पैर का हिलना बढ़ रहा था। पहले वह दवाइयों आदि से इस पर नियंत्रण पा लेते थे ताकि हमें मालूम न हो सके। लेकिन, अब दवाइयाँ हिसाब से ही लेने लगे थे। एक दिन मुझसे बोले, “कोई लड़का मिल जाये तो नीता का विवाह कर दें।"
“डैडी, अभी तो वह बहुत छोटी है।"
“छोटी क्यों, अट्ठारहवें में है।"
मम्मी डैडी से भी अधिक उतावली लगती थी। मैंने कहा, “जल्दबाजी न करो, मेरी बारी तो आप...।"
“तू तो ठीक ही है, लड़का अच्छा मिल गया, और क्या चाहिए।"
“पर नीता को अभी पढ़ लेने दो।"
“पर बेटे, मेरा कुछ भरोसा नहीं।"
“डैडी, तुम्हें कुछ नहीं होगा। मैंने इस बीमारी के बारे में पढ़ा है, ये बीमारी लाइफ के लिए डेंजरस नहीं है।"
“पर मैं तो तंग आ गया हूँ, अब तो कुछ भी करने योग्य नहीं रहा।" कहकर डैडी बहुत उदास हो गये और मुझे भी उदास कर गये। जल्द ही, उनका काम छूट गया और डिसेबिलिटी बेनीफिट मिलना आरंभ हो गया। अब हमारे सामने डैडी को सम्भालने का बड़ा काम आ खड़ा हुआ था।
मम्मी को शाम का काम मिल गया। दिनभर वह डैडी के पास रहती। उसके काम पर जाने तक नीता कालेज से लौट आती। मैं भी चक्कर लगाती रहती। लेकिन मुझे तसल्ली न होती। मैंने परी के जन्म पर एक बार फिर काम छोड़ दिया था, वह काम फिर से मुझे मिल गया। मैं परी को माँ के पास छोड़कर चली जाती। बीच-बीच में आकर देख जाती। अगर काम छोड़ रखा होता तो कुछ अधिक समय डैडी के पास गुजार सकती थी। मम्मी काम पर गयी होती, तो नीता और बिन्नी को खाना खिला आती। डैडी को समय से दवा दे दिया करती।
डैडी का हाथ अब इतना हिलने लगा था कि उनसे पगड़ी बांधना भी कठिन हो गया। मम्मी उनकी पगड़ी बांधती, पर उन्हें पसन्द न आती। खोलकर दुबारा बांधते। आखिर, विवश होकर हम लोगों ने उनके केश कटवा दिए। इसका उन्हें बहुत दु:ख लगा। बोले, “जिन दिनों में यहाँ पगड़ी वालों से नफ़रत की जाती थी, उन्हें काम नहीं दिया जाता था, उन दिनों भी मैंने अपने केश सम्भाल कर रखे थे। देखो, लाइफ ने कैसा चक्कर काटा कि ...।"
“यह तो सब रब देखता ही है, तुमने कौन-सा जानबूझकर...।"
मम्मी की दलील पर वह खीझ कर कहते, “कौन-सा रब ! अगर रब होता तो मेरी यह हालत न होती। मैंने कौन-सा गुनाह किया था?”
डैडी रब को बुरा-भला कहने लगते। उन्होंने पाठ करना छोड़ दिया और अब वे गुरुद्वारे भी नहीं जाते थे।
रवि मेरे संग खीझा-खीझा रहने लगा। मैं जानती थी कि वह खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा था। मैं घर लौटती तो वह स्वयं ही खाना बनाकर खा चुका होता। टेलीविजन देख रहा होता। कई बार सोने की तैयारी में भी होता। छोटी-छोटी बात पर बहस पड़ता, बल्कि बहस का बहाना ढूँढ़ता रहता। मैंने कई बार उससे बात करने की कोशिश की, पर कर न सकी। एक दिन वह कहने लगा, “तेरे डैडी की बीमारी टेम्परेरी नहीं, परमानेंट है। अब उनका और तुम सबका यह वे-आफ़-लाइफ बन चुका है। अपना फर्ज़ है कि उनकी हेल्प करें, पर अपना सिस्टम खराब करके नहीं। अपनी लाइफ अपसेट नहीं करनी चाहिए, माइंड इट।"
उसने यह सब बड़े रौब के साथ कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। मेरा मन कह रहा था कि इससे आगे अगर वह कुछ बोलेगा तो मैं झगड़ा कर बैठूँगी। लेकिन, वह और कुछ न बोला। जब कभी भी मुझे लौटने में देर हो जाती या रात में मैं मम्मी के घर ही सो जाती, वह यही बात प्राय: दोहराने लगता।
रवि मेरी मदद भी कर दिया करता। डैडी को हम दूर-दूर तक दिखाने ले जाते। कैम्ब्रिज शहर में हमें किसी ने डॉक्टर बताया था कि वह देशी दवाओं से इलाज करता है और मालिश भी। वह कोई गोरा था जो इंडिया से आयुर्वेदिक चिक्तित्सा सीख कर आया था। हम हर रविवार डैडी को वहाँ लेकर जाते। डैडी कुछ आराम अनुभव कर रहे थे। एक रविवार के दिन रवि को फोन पर सूचना मिली कि उसकी माँ इंडिया से आ रही है। इधर आना तो वह काफी दिनों से चाह रही थी, पर किसी कारण से देर होती जा रही थी। आज रवि उसके आने की बात करते हुए भावुक हो उठा था। लेकिन, मुझे उसकी माँ का आना अधिक अच्छा नहीं लगा। अचानक फोन आ गया कि सवेरे दस बजे की फ्लाइट से पहुँच रही है। वह खुशी में उछल पड़ा और मुझसे बोला, “अपनी मम्मी को फोन करके बता दे कि हम एअरपोर्ट जा रहे हैं, आज डैडी को लेकर जाना सम्भव नहीं होगा।"
“पर डैडी को लेकर जाना ज़रूरी है।"
“हर हफ्ते जाते ही हैं, कितना फर्क पड़ा है? एक हफ्ता न भी गये तो क्या फर्क पड़ता है।"
“तेरी नज़र में मेरे डैडी की सेहत की कोई इम्पार्टेंस नहीं?”
“है, पर इस वक्त मेरी मदर का आना ज्यादा ज़रूरी है।"
वह एअर-पोर्ट पर जाने के लिए तैयार होने लगा और बोला, “चल, रेडी हो जा तू भी।"
“मैं नहीं जा सकती, तेरे साथ।"
मैं गुस्से में थी। रवि एअरपोर्ट चला गया और मैं परी को लेकर मम्मी के घर पहुँच गयी। मम्मी को सारी बात बताई तो वह मेरे से गिला करने लग पड़ी, “कंवल, तू अपना घर सम्भाल। तेरे डैडी को हम सम्भाल रहे हैं।"
माँ के आने पर रवि बदल गया। यद्यपि उसकी माँ हमारे घर अधिक नहीं ठहरती थी, पर जब आती तो रवि बदल जाता। मेरे पर रौब डालने लगता। मैं भी आगे से तैयार होती और झगड़ा हो जाता। वह अपनी माँ को लेकर मम्मी के घर आता। डैडी का हालचाल पूछता। नीता और बिन्नी से भी बातें करता, पर मेरे से खिंचा-खिंचा रहता। उसकी माँ जब इधर आई होती तो मेरी कोशिश रहती कि मैं अधिक से अधिक समय डैडी के घर में ही बिताऊँ। मम्मी कहती रहती कि मैं अपने घर जाऊँ, पर मेरा दिल नहीं मानता। मैं मन ही मन शुक्र मनाती थी कि अच्छा है, रवि की माँ दूसरे रिश्तेदारों के घर चली जाती है। अगर कहीं पूरा समय हमारे ही पास उसे रहना पड़ता तो मुश्किल खड़ी हो जाती।
अगर उसकी माँ घर पर होती तो वह डैडी के बारे में अधिक कुछ न कहता, नहीं तो मुझे लेक्चर देने बैठ जाता। मैं प्रत्युत्तर में कुछ कहती तो मेरी ओर उछल- उछलकर पड़ता। मुझे डर भी लगता कि कहीं मुझे मार न बैठे। ऐसे ही मूड में वह पहले एक बार मुझ पर हाथ उठा चुका था और फिर बाद में कितनी ही देर तक माफी मांगता रहा था। मैं सोच रही थी कि इस बार हाथ लगाकर तो देखे, अब माफ नहीं करूँगी।
एक दिन, मैं काम पर जाने लगी तो रवि बोला, “आज मदर की सेहत कुछ ठीक नहीं, काम पर से सीधे घर आ जाना और इसे डॉक्टर के पास ले जाना।"
“मैं डैडी की बांह की मालिश करके ही आऊँगी।"
“तब तक डॉक्टर की क्लीनिक बन्द हो जाएगी।"
“तो फिर तुम क्यों नहीं ले जाते?”
“क्या पता, मदर की क्या प्राब्लम है। कोई औरतों वाली प्राब्लम हुई तो मैं वहाँ क्या बात करूँगा।"
“अपनी डॉक्टर औरत है और पंजाबी बोलती है। मम्म खुद ही बात कर लेगी।"
“तू क्यों नहीं जा सकती? जो पहाड़ तू उठाये फिरती है, तेरी माँ भी उठा लेगी।"
“तू मुझे अपने डैडी की लुक-आफ्टर करने से रोक रहा है।"
यूँ ही एक दिन वह क्रोध में आकर मेरी ओर बढ़ा और मुझे मारने लगा। उसकी माँ ने आकर मुझे छुड़ाया। रवि गन्दी गालियाँ बके जा रहा था। मुझे बेइन्तहा गुस्सा था कि इसकी हिम्मत कैसे पड़ी मुझ पर हाथ उठाने की। मैं सोचने लगी कि ऐसी ज़िन्दगी जीने का क्या फायदा! मेरे हाथ पैरासीटामोल की गोलियाँ लग गयीं, मैंने सारी की सारी पानी से अन्दर गटक लीं।