रेत भाग 6 / हरज़ीत अटवाल

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सवेरे सोकर उठा तो सिर में दर्द की एक तार घूमे जा रही थी। नौ बज चुके थे। पर्दों से रोशनी अन्दर झांक रही थी। मैं सैटी पर ही पड़ा हुआ था। मेज पर पड़े रात के जूठे बर्तन, खत्म हुई व्हिस्की की बोतल रात की कहानी कह रहे थे। मैंने सोचा कि अधिक पी ली होगी, तभी तो इतनी देर से आँख खुली। मेरी नींद का शराब से गहरा संबंध हुआ करता था। पव्वा भर शराब पी होती तो दो बजे तक ही गहरी नींद आती और फिर नींद टूट जाती। अद्धा पीता तो चार बजे तक नींद आती। रात को ज़रूर पूरी बोतल पी ली होगी जिससे सुबह के नौ बज गये। मेरे सिर का दर्द बढ़ रहा था। हिला नहीं जा रहा था। हिम्मत करके बोतल में बची शराब गिलास में डाली और बग़ैर पानी नीट ही पी गया। पल भर में ही सिर का दर्द धीमा पड़ने लगा।

मैं उठकर बाथरूम में गया। आईना देखा। मेरा चेहरा ढीला हुआ पड़ा था, मानो मैं नहीं, मेरा दस साल बड़ा भाई हो। आँखों के नीचे बड़ी-बड़ी थैलियाँ-सी दिख रही थीं। बाल कटवाने वाले हो गये थे। दाढ़ी भी बढ़ गयी थी। अगर अब जैसी दाढ़ी रखी भी होती, तो कंघी रखकर कैंची फेरता रहता, पर अब तो कितने दिन ही बीत गये थे। मैंने मुँह पर पानी के छींटे मारे। कुछ होश आया। चेहरा कसने लगा। ब्रश किया तो कुछ और ताजगी महसूस हुई। मैं कुछ देर तक खड़े-खड़े आईना देखता रहा और फिर कहा, “इंदर सिंह, कुछ अक्ल कर ! क्या प्रॉब्लम है तेरी ? घर है, किरन है, सोनम है, बिजनेस है, और तूने घंटा लेना है !”

फ्रंट रूम में आया, रात के पड़े बर्तन मुझे काटने को जैसे दौड़े। रसोई में गया तो देखा मानो रात में किरन रोटी बनाना बीच में ही छोड़ गयी थी। ज़रूर रात में झगड़ा हुआ होगा। झगड़ा तो होता ही रहता है, पर रात वाले झगड़े के बारे में मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। मैं कुछ देर सोचता रहा कि क्या हुआ होगा, पर कोई सूत्र हाथ में नहीं आ रहा था। मैंने अल्मारी में से बोतल उठाकर एक पैग और पिया और बैठकर याद करने लगा कि आखि़र हुआ क्या था।

कल शाम हम दफ़्तर में बैठे थे। नया रैप विनोद किसी बड़ी फर्म का कंट्रेक्ट लेकर आया था कि वे हमारी टैक्सी और हमारी वैन इस्तेमाल करेंगे। इसी खुशी में मैं अपने ऊपर वाले दफ़्तर में गया और बोतल खुल गयी। फिर, विनोद के साथ मैं पब में चला गया। दफ़्तर में मैं कभी पीता नहीं था। स्टाफ के साथ मैंने किसी किस्म की दोस्ती डाली ही नहीं थी। यह तो विनोद ने जोर डाला कि नए कंट्रेक्ट की खुशी मनाई जाये। वह पब में जाना चाहता था, पर मैंने दफ़्तर में ही शुरू कर दी। मैंनेजर लैरी भी हमारे साथ था। वहां दो गिलास ज़रूरत से ज्यादा पिये गये और मैं टुन्न होकर घर लौट आया। घर लौटा तो किरन सोनम को नहला रही थी। मुझे शराबी हुआ देखकर कुछ न बोली। सोनम को मुझे पकड़ा कर वह काम में जा लगी। वह रसोई में कुछ कर रही थी। मुझे भूख लगी थी। वैसे हमारा खाना खाने का समय दस बजे का था। अभी सात बजे थे। वह मुझे कुछ खाने को देने की बजाय सोनम के लिए दूध बना लाई और मुझसे कुछ न पूछा। मुझे गुस्सा चढ़ने लगा। मैंने और पी ली और बस... ।

मुझे अपनी गलती का अहसास होने लगा कि किरन बेचारी गऊ और मैं कितना कसाई ! मैं किरन का गुनहगार था। बिना किसी बड़े कारण से झगड़ा किया। मुझे पछतावा हो रहा था। मुझे पता था कि शराबी बन्दा बाद में पश्चाताप में डूब जाता है, पर यह सच्चा पछतावा था। दूसरे पैग ने मेरा सिर ठीक कर दिया, रात की जिस्म के अन्दर पड़ी शराब को भी ‘जाग’ लगा दिया।

मैंने मुँह में इलायची डाली और सोनम को पुकारने लगा। मुझे पता था कि किरन तो आज बोलेगी नहीं। मैं सोनम को आवाजें लगाता हुआ ऊपर कमरे में चला गया। किरन एक ओर मुँह किये पड़ी थी। मैं उसके साथ जा लेटा और सोई हुई सोनम को पेट पर लिटा लिया। किरन रजाई से नाक दबाने लगी। मैं बोला, “लुक सोनम बेटे, ध्यान से सुन, तेरा पापा जैसे भादों का जन्मा हुआ है। भादों के जन्मे को कोई काम कर चुकने के बाद ही अक्ल आती है कि यह काम ठीक किया है कि गलत। अब तू पूछेगी कि भादों क्या होता है ? अगर तुझे पता भी होता तो भी क्या फायदा होना था। तू तो सो रही है, जो पड़ोसी जाग रहे हैं, जब उन्हें मेरे भादों के जन्में का कुछ नहीं, तो किसी ओर को भी क्या होगा।"

मैं कुछ देर चुप रहा। किरन ज़रा-सा हिली। मैंने फिर कहा, “सोनम बेटे, लोग तेरे पापा से बहुत लड़ते हैं, बाहर तो मैं लड़ लूँ, पर में तेरी माँ का मुकाबला कैसे करूँ। तेरे पापा शरीफ़ और तेरी माँ पूरी बाघिन !”

“किधर से शरीफ हो तुम ? तुम बघियाड़ हो बघियाड़... तुम मुझे खाये जाते हो।"

“सोनम, अपनी माँ को बता दे कि पापा वैजिटेरियन है। तेरी माँ का सड़ा हुआ मीट कैसे खा सकता है। अपनी माँ से कह दे, मेरे से लड़े नहीं।"

मैं लड़ती हूँ ? मैं ?... तुम लड़ते हो, मेरा आगा-पीछा कोसते हो, तुम मुझे पसन्द नहीं करते तो मेरे से विवाह क्यूँ करवाया ? मुझे वापस भेज दो, मुझे नहीं चाहिए ऐसी इग्लैंड, मुझसे धड़ी-धड़ी भर की गालियाँ नहीं सुनी जातीं, मुझे वापस भेज दो।" बात करते-करते वह उठकर बैठ गयी। वह रोती भी जाती थी और लड़े भी जाती थी। सोई हुई सोनम करवटें बदलने लगी। मैंने थपथपा कर उसे फिर से सुला दिया और कहा, “सोनम बेटे, माँ को बता, हम कहीं लड़ने वाले बंदे हैं, हम तो ईंट का जवाब थैंक्यू में दिया करते हैं। कहीं भूल-चूक हो ही जाती है।"

“ज्यादा चालाक न बनो, जब विवाह करवाया था तो तुम्हारी माँ कभी ऐनक लगाकर, कभी ऐनक उतार कर मुझे देखती थी। अब गालियाँ निकालने का क्या काम ?” माताश्री, असल में गालियाँ मैं अपनी माँ को निकाला करता हूँ जिसने तुझे ढूँढ़ा।"

वह मानते-मानते फिर रूठ गयी और मुँह घुमाकर लेट गयी। मैंने उसके सिर के नीचे बांह का सिहराना दिया और उसका मुँह अपनी ओर करते हुए बोला, “देख, तुझे मैं माताश्री भी इसीलिए कहता हूँ कि तू मेरी माँ ही है, जैसे तू सोनम की लुक-आफ्टर करती है, वैसे ही मुझे भी सम्भालती है, भला तेरे बगै़र मैं कैसा !” वह कुछ ढीली पड़ गयी, पर नाराजगी अभी भी नहीं गयी थी। मैंने कहा, “मेरी अर्द्धागिनी, चल उठ, बहुत टाइम हो चला है।"

“आज नहीं उठना मैंने, नित-नित का क्लेश मेरे से नहीं सहा जाता। मैंने इंडिया चले जाना है, सम्भालो अपनी बेटी और सम्भालो अपना घर, मैं नहीं किसी काम को हाथ लगाऊँगी।"

अब सोनम जाग गयी थी। मुझे भी व्हिस्की की और तलब जागी। मैंने सोनम से कहा, “उठ बेटे, तुझे दूध बनाकर दूँ, भूखी होगी तू। तेरे पापा का क्या है, उसकी किसे फिक्र है, परसों की रोटी खायी हुई है, यह ज़रा पेट पर हाथ रखकर देख, बिलकुल ही अन्दर घुस गया है।"

किरन ने मेरी ओर देखा और चिंतित होकर कहने लगी, “सच, कल तुमने कुछ नहीं खाया ?”

“नहीं, तेरे से रोटी मांगी थी, तू आगे से लड़ पड़ी।"

“सॉरी-सॉरी, चलो आओ, रोटी बनाऊँ।"

यह मेरा अन्तिम हथियार था। वह मुझे भूखा नहीं देख सकती थी। यह हथियार मैं बहुत कम इस्तेमाल करता था कि कहीं भोंथरा न कर बैठूँ। हम उठकर नीचे आये। उसने जल्दी से बर्तन संभाले, कुकर साफ किया और चाय का पानी रखा। साथ ही, आमलेट बनाने लगी। मैं व्हिस्की का पैग बनाने लगा तो वह मुझे रोकते हुए बोली, “अभी पूरा दिन पड़ा है, पचास काम करने वाले हैं, घर की शॉपिंग भी करनी है, काम पर से भी फोन आया था।"

“क्यों ?”

“कोई ड्राइवर कंट्रोलर से लड़ पड़ा है।"

“वहाँ तो कोई न कोई पंगा पड़ा ही रहता है, तू ला कुछ खाने के लिए।"


जब से यह बिजनेस लिया था, तब से ऐसी परेशानियों का सामना करना ही पड़ता था। इतने साल मैंने ‘सनराइज मिनी कैब’ के साथ टैक्सी चलाई तो ज़िन्दगी सुखी थी। कंपनी को किराया दिया, अच्छी-सी कार ली और बस, टाइम लगाए जाओ। जितने अधिक घंटे, उतने ही ज्यादा पैसे। वहाँ मुश्किलें थीं, पर दूसरी तरह क। इन कारोबारी मुश्किलों से वास्ता यह कंपनी खरीद कर पड़ा।

जब यह कंपनी बिकने पर लगी तो हमारी कंपनी के ड्राइवर इसको लेकर बातें करने लगे। दो हिस्सेदारों की यह कंपनी थी और उनके झगड़े के कारण काम फेल हो गया था। काम आ ही नहीं रहा था तो ड्राइवर कैसे टिकते। जो ग्राहक थे, वे गुम हो गये और कंपनी बन्द हो गयी। यह एक किस्म का नया काम शुरू करने जैसा ही था। ‘सनराइज’ के साथ इतने बरस काम करने के बाद थोड़ा अनुभव तो था ही। मुझे यह कंपनी घर के नज़दीक पड़ती थी। मैं इसे खरीदने के बारे में सोचने लगा था।

काफी समय से बन्द होने के कारण यह कंपनी दस हजार पौंड में मिल रही थी। दफ़्तर किराये का था। नीचे दुकान जितना दफ़्तर और ऊपर फ्लैट भी था, जिसमें से एक कमरा दफ़्तर के लिए भी इस्तेमाल किया जाता रहा था और बाकी को किराये पर दिया हुआ था।

मैंने काफी कुछ सोच-समझकर सौदा कर लिया। मैं यही सोचकर चला था कि दस हजार का जुआ ही सही। खो गये तो खो गये। अगर बिजनेस चल पड़ा तो बहुत ही अच्छा।

इस कंपनी का दफ़्तर ईलिंग के एक स्टेशन के करीब था। इसका पहले वाला नाम ‘क्राउन मिनी कैब’ ही रहने दिया और इसकी मशहूरी आरंभ कर दी। कार्ड छपवा कर घर-घर फेंके गये। लोकल प्रैस में विज्ञापन दिये। यह स्टेशन तो अधिक नहीं चलता था, पर ठिकाना अच्छा था। दुकानों की परेड थी। निकट ही एक पब भी था जो कि काफी भरा रहता और वहाँ से काफी ग्राहकों के आने की आस थी।

‘सनराइज’ में काम करते कुछ ड्राइवरों को संग लिया। ‘सनराइज’ का एक कंट्रोलर बौबहेज़ था, वह भी मेरे साथ आ गया। मैनेजर लैरी को बना दिया। मैं खुद ड्राइवर के तौर पर काम करता था। कभी प्रितपाल भी कंट्रोलर का काम करने आ जाता। धीरे-धीरे हमारा काम चल निकला। ऊपर वाले फ्लैट को किरायेदार से खाली करवा लिया।

‘क्राउन मिनी कैब’ शुरू करने से पहले ही मैंने यह फैसला कर लिया था कि अब विवाह करवा लेना है और ज़िन्दगी को रास्ते पर लाना है। बीटर्स या उस जैसी औरतों का साथ अच्छा था, पर ज़िन्दगी नार्मल नहीं चलती थी। जैसा कि बीटर्स के लड़के ने ही अपने अन्दर का नस्लवाद उगल दिया था। इतनी भर आवारगी में से यह सीख लिया था कि पंजाबी तरीके की गृहस्थी में से ही मुझे सुख मिल सकता था। किसी की कही छोटी-सी बात अधिक देर तक मुझे तंग करती रहती। डैनी की बात ने मुझे इतना ज़ख्मी किया कि काफी समय तक मैं बीटर्स के पास न जा सका।

यद्यपि डैनी बच्चा था, पर ऐसे बच्चे के साथ मैं कैसे वक्त गुजारता जो अवसर पाते ही अपनी नफ़रत का इज़हार कर सकता था। दूसरी ओर, मेरे भतीजे राणू और दीपक मुझे इतना प्यार करते थे कि जब भी वे मिलते तो मुझसे लिपट-लिपट जाते। उनकी ओर देखकर ही लगता कि मेरे भी अपने बच्चे होने चाहिएँ। मैंने बीटर्स से एक बार फिर कहा, “बीटर्स, मुझे एक बच्चा चाहिए तेरे से।"

“मेरे से कोई आस न रख, पहले ही बता दिया था तुझे, तू कोई दूसरी खोज ले।"

मैंने अपनी गुनहगार रूह को कई बार कोसा और बीटर्स को बग़ैर बताये इंडिया चला गया।



प्रितपाल दो चक्कर इंडिया के लगा चुका था। पहले वह परिवार के साथ गया और फिर अकेला ही। वह मेरे विवाह के लिए मैदान साफ करता घूम रहा था। इस बात का पता मुझे वहाँ जाकर ही चला। उसने कोई लड़की मेरे लिए पसन्द कर ली थी। उसके घर वालों से बात कर ली थी। मेरे जाने से पहले उसने कहा था, “अगर मेरे वश में हो तो किसी टूटी हुई जट्टी से तेरा विवाह करवा दूँ। जिसे जब मन हुआ पीट लिया और जब चाहे उससे रोटी पकवा ली।"

मैंने भी यही सोच रखा था कि सादी-सी लड़की चलेगी जो मेरी बात सुनती रहे, कहना मानती रहे। मैं घर पहुँचा तो माँ और बापू जी अपने इर्द-गिर्द अखबारें फैलाकर बैठे थे, लड़कियाँ पसन्द कर रहे थे। एक लिस्ट भी बना रखी थी। ढेर सारी फोटो लिए फिरते थे। शाम को बापू जी बोतल खोलते और मुझे एक-एक लड़की के बारे में बताने लगते। बातों-बातों में मैं भी शराबी हो जाता। माँ झगड़ा करती, “अगर विवाह करवाना है तो शराब न पी। शराबी को कौन अपनी बेटी देगा।"

माँ की बात पर बापू जी कहते, “कौन बेटी देगा ! ...हमारे बेटे को तो मिनिस्टरों के घरों से रिश्ते आते हैं। यह तो मैं ही सोचता हूँ कि अपने जैसे के साथ माथा लगाएँ, ताकि बाद में पछताना न पड़े।"

फिर, मुझसे कहने लगते, “वैसे बड़े, हमने एक रिश्ता पसन्द किया हुआ है। अपने जैसे बन्दे हैं, जैसे तू सूबेदार का पुत्त, वैसे वह सूबेदार की बेटी। इतवार को फगवाड़े जाना है और तुझे पसन्द हो तो हाँ कर दे, झट मंगनी पट शादी।"

“अगर तुमने हाँ कर ही रखी है तो... ।"

“हमने कोई हाँ नहीं की, पसन्द की है, हाँ तूने करनी है।"

“फिर ये इतनी फोटो क्यों उठाये फिरते हो ?”

“ये तो तेरे सामने चुवाइस रखी है, यह नहीं तो वह सही।" कहकर वह हँसने लगते।

इतवार वाले दिन हम लड़की देखने फगवाड़े गये। लड़की के किसी रिश्तेदार का घर था। लड़की के माँ-बाप और रिश्तेदार हाजि़र थे। हम भी सभी उपस्थित थे। लड़की साधारण-सी थी। किसी खास आकर्षण के बिना। प्रितपाल यही कहता था कि तुझे सादी लड़की ही ठीक बैठेगी। माँ ने मेरे कान में मेरी राय पूछी तो मैंने कहा कि बाहर चलकर बात करते हैं। हम उठकर बाहर आ गये। बस-स्टैंड नज़दीक ही था। माँ ने फिर पूछा, “तूने हाँ क्यों नहीं की ?”

“मैं चाहता हूँ कि अभी और देख लें।"

माँ इतनी बात पर भड़क उठी, “क्या मतलब है तेरा, अगर हाँ नहीं करनी थी तो आया ही क्यों ?”

“तुम लोग ही तो मुझे पसन्द करवाने लाए थे।"

“फिर की क्यों नहीं ?”

“मैं अभी सोचूँगा।"

मैंने बापू जी की ओर देखा। वह बोले, “ऐसे बन्दे नहीं मिलते। देख बड़े, हम हाँ कह चुके हैं।"

“माँ, लड़की ज़रा सादी है।"

“तू कहाँ का जूसफ है, जैसी लड़कियाँ तू ढूँढ़ता है, हमें सब पता है। तू शुक्र कर कि शरीफ घर का रिश्ता तुझे हो जाये। तू अब ना करके हमारी बेइज्ज़ती करता है।"

माँ मेरी ओर उछल-उछलकर आ रही थी। ऐसा लगता था कि अभी थप्पड़ मारा कि मारा। मैं जैसे हार गया और बोला, “जा, माँ हाँ कह आ।"

माँ और बापू दोनों ही खिल उठे। जहाँ लड़की देखकर आये थे, वह घर नज़दीक ही था। वे ‘हाँ’ कहने के लिए चले गये। बापू जी वापस लौटे तो नशे में टल्ली थे। मुझसे कहने लगे, “हाँ तो यहाँ आया छोटा ही कर गया था।"

मुझे उनकी बात पर हँसी भी आ रही थी और गुस्सा भी। घर पहुँचकर मैंने भी शराब पी ली। मेरे अन्दर भी बात करने की हिम्मत आ गयी। मैंने कहा, “बापू जी, अगर छोटा हाँ कर गया था तो लड़की उसके साथ ही भेज देते। मेरा टिकट पर क्यों खर्चा करवाया, जो चार फेरे मैंने लेने थे, वह ले लेता। अगर मुझे कुछ कहने-सुनने का मौका ही नहीं देना था तो मुझे बुलाये क्यों जाते थे ?"

“बड़े, तुझे मौका हमने पूरा देना था, पर तूने अपने चांस खराब कर लिए, मौके के हक गवां दिये।"

“वह कैसे ?”

“गोरी के संग तेरे रहने के कारण तो हम डर ही गये थे कि जिस राह तू पड़ गया है, वो खानदान को तबाही की ओर ले जाता है। तुझे चांस देने का हमारे पास टाइम ही नहीं था।"

“ऐसी कोई बात नहीं थी, छोटा फालतू का रेडियो-स्टेशन बना बैठा है।"

“चल, अब तेरा तोपा भर जाएगा, ऐश कर, नई लाइफ स्टार्ट कर।"

जब मैंने अपना काम आरंभ किया तो मेरे पास समय का बड़ा अभाव हो गया। पहले की तरह बीटर्स के पास रात में रह सकना कठिन था। फोन पर बात हो जाती या फिर कुछ घंटे के लिए हो आता। शाम को अगर जाता तो रात में लौट आता। मुझे पीछे की फिक्र ज्यादा रहती थी।

तरसेम फक्कर कभी मिलता तो गिला करता कि बीटर्स की तरफ मैं क्यों नहीं जाता। वह हर हफ्ते कैथी के पास जाया करता था। अब तो वह रह ही कैथी के लायक गया था। उसकी पत्नी जीती पहले ही उसे अधिक नहीं बुलाती थी। उसके बच्चे भी अब उसकी परवाह नहीं करते थे। घर के खर्चों का आधा उससे ले लेते और उसकी मर्जी में दख़ल न देते। कैथी की गालियाँ या उसके नस्लवाद का उस पर कोई खास फर्क न पड़ता। वैसे भी तरसेम मोटी चमड़ी का मालिक था, छोटी-मोटी बात का उस पर असर कम ही होता। कैथी का बेटा पॉल भी उसके साथ बढि़या बर्ताव न करता, पर तरसेम फक्कर को फर्क नहीं पड़ता था। कैथी उसका अपमान कर देती, उसे घर में से बाहर निकाल देती, पर वह खुशामद-मिन्नत करके फिर जा घुसता। कैथी भी उसको ‘सैंडी-सैंडी’ कहती फिर से वही हो जाती। बीटर्स मुझसे कहती, “देख, कैथी कितनी किस्मत वाली है, सैंडी हर वीक-ऐंड पर उसके पास होता है।"

“सैंडी ने कौन-सा बिजनेस चलाना है, बीटर्स डार्लिंग। समझ कि मैं बहुत बिजी हूँ।"

इंडिया से लौटते ही मुझे बीटर्स का ख़याल आया। मन हुआ कि उसे मिलकर आऊँ, पर किस मुँह से जाता। फिर यह बात भी मन में आती कि उससे मिलना ज़रूरी था, सारी बात साफ कर देनी चाहिए थी। मैं सोचने लगा कि उसके पास जाने का, उसे फोन करने का सबब बनाऊँ। अगले दिन उसका ही फोन आ गया, “आ गया तू, कम से कम मिलकर तो जाता।"

“डार्लिंग, छुट्टियों में ही जाना था, जल्दी में था।"

“मिलने आएगा कि नहीं ?”

“हाँ-हाँ, कब आऊँ ?”

“पहले पूछ कर आता था ?”

“परसों आऊँगा।"

मैं उसके घर गया। कुछ घंटों के लिए गया था। सोचा था कि बता दूँगा कि मैंने विवाह करवा लिया है। मैं पहुँचा तो वह चुप थी। मैंने बता कर न जाने के लिए ‘सॉरी’ कहा, पर वह चुप थी। उसके बेटे मुझे खुश होकर मिले। अब जब से मेरा यहाँ आना कम हो गया था, तभी से डैनी मुझसे खुश होकर मिलता। जॉन तो पहले ही मेरे साथ अपनों की तरह पेश आता था। अपनों की तरह ही मेरे सामने अपनी मांगें रखने लगता। मैंने कहा, “चल बाहर चलते हैं, पब में।" “नही इंदर, घर में ही बैठेंगे, बाहर जाने का मन नहीं। मैं बच्चों को सुला दूँ, फिर बातें करेंगे।"

मैंने उसे वोदका का पैग बनाकर दिया। वह पैग पीते हुए अपने बच्चों के लिए खाना बनाती रही। उन्हें सोने के लिए भेजकर मेरे पास आकर बैठ गयी। एक और पैग पिया और कुछ खुलने लगी। कुछ देर की गहरी चुप्पी के बाद बोली, “इंदर, तू भी वैसा ही निकला, बाकी मर्दों जैसा ! मैं तो समझी बैठी थी कि तू कुछ अलग आदमी है... इंडिया जाते समय मुझे मिलना तो क्या तूने फोन तक नहीं किया, बताया तक नहीं।"

“बीटर्स, मैं जल्दी में था। एकदम प्रोग्राम बन गया।"

“झूठ न बोल इंदर, झूठ न बोल। तूने विवाह करवाने जाना था, गया और विवाह करवा आया। मुझे बता देता, मैं कौन-सा तुझे रोकने वाली थी, मेरा तेरे पर हक ही क्या था।"

“बीटर्स, मेरी हिम्मत नहीं पड़ी थी तेरे से बात करने की, तेरा सामना करने की।"

“पर तुझे एकदम विवाह की क्या ज़रूरत पड़ गयी ? तू मेरे से ऊब गया था ? या अब मैं बासी हो गयी ? इतना प्यार दिखाते-दिखाते कहाँ जाकर गिरा तू ?”

“बीटर्स, मुझे बच्चे चाहिए थे।"

“बहाना मत बना इंदर, इस बारे में इन्कार तो मैंने तुझे बहुत पहले ही कर दिया था, फिर भी तू मेरे साथ रहता था। असल बात कुछ और है इंदर, असल बात और है।"

उसका चेहरा क्रोध में लाल हो उठा था और मुझसे हटकर बैठी वह बोली, “असल बात यह है कि मैं दो बच्चों की माँ थी, तुझे कुआँरी लड़की चाहिए थी और साड़ी वाली चाहिए थी।"

उसने और वोदका पी और नशे में मेरी ओर कुछ दूसरे ही ढंग से देखने लगी। मैं सोच रहा था कि आज मेरी खैर नहीं। मैं कोई बहाना सोचने लगा कि उठकर चला जाऊँ, पर मुझसे उठा न गया। वह कहने लगी, “सच यह है कि तुम लोग विवाह करवाते हो साड़ी वालियों से, हमें रखते हो रखेल बनाकर, हमें अपनी बीवियाँ नहीं बनाते, तुम्हारा समाज इजाज़त नहीं देता।"

फिर पता नहीं क्या-क्या वह बोलती रही। मैं बैठा सुनता रहा। मेरे पास उसकी किसी बात का जवाब नहीं था। वह इतना बोली कि थक गयी, उसकी आँखें मुंदने लगीं। वह सैटी पर ही सो गयी। मैंने उसे उठाया और बैडरूम में ले आया। उसे सीधा करके बैड पर लिटा दिया। रजाई ओढ़ा कर चलने लगा तो बोझिल स्वर में बोली, “मुझे इतना रुला कर कहाँ चला हरामी?”

मैं रात में वहीं ठहर गया। सवेरे तक उसका गुस्सा ठंडा हो चुका था। वह गहरा सांस भरकर बोली, “इंदर, सॉरी, रात में मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी। मुझे गुस्सा आ गया। मुझे गुस्सा नहीं करना चाहिए था, मुझे समझना चाहिए था कि तू मेरे घोंसले का पंछी नहीं, फिर भी, मैं तुझे कुछ ज्यादा ही चाहने लग गयी थी। मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तू मुझे छोड़ देगा।"

“सॉरी बीटर्स, मुझे भी सारी बात तेरे से पहले ही खोलकर करनी चाहिए थी।"

उसने मेरी बात के उत्तर में कुछ न कहा और सोचने लगी। सोच में से निकलकर उसने कहा, “मुझे तेरे काम पर से ही तेरे विवाह का पता चला, मैं बहुत रोयी, नोटिंग्घिल की सड़कों पर अकेली रोती हुई घूमती रही, मैंने तुझ पर अधिक विश्वास करने की गलती कर ली थी।"

फिर, वह अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोली, “देख, फिर से मेरा वजन कितना कम हो गया, तू मेरे साथ होता था तो औरतें मुझसे पूछने लगती थी कि मैं गर्भवती तो नहीं ? तब हम खाते भी बहुत थे, अब तो कई-कई दिन मैं खाती ही नहीं।"

मुझे कोई बात नहीं सूझ रही थी। मैंने कहा, “कुछ भी हो, मैं तुझे बहुत प्यार करता हूँ।"

“बकवास ! प्यार तो तुझे मैंने किया है, करती हूँ, तूने मुझे नरक में से निकाला, असली ज़िन्दगी के दर्शन करवाए, नहीं तो मैं उसी हाल में रहती रहती, यूँ ही उम्र बिता देती। इंदर, मैं तुझे इतना प्यार करती हूँ कि तेरी खातिर कुछ भी सह लूँगी, तू बेशक साड़ी वाली के संग ही रहता चल।"

उसे साड़ी के बारे में अधिक पता नहीं था। औरतों की हर भारतीय ड्रैस को वह साड़ी ही बोलती। वह मजाक के मूड में आयी तो मेरी विवाहित ज़िन्दगी की रातों के बारे में पूछती रही, फिर बोली, “कितनी देर तक तू मेरे लिए है ? मेरा मतलब साड़ी वाली कब आ रही है ?”



किरन के आ जाने से घर कई तरह की खुशबुओं से भर गया था। नई दुल्हन से घर की फि़ज़ा इतनी बदल जाती है, मुझे पता नहीं था। मेरा विवाह इंडिया में हुआ। किरन नई दुल्हन वहाँ पर थी। लेकिन वहाँ मैंने यह बात महसूस ही नहीं की। वहाँ मैं बहुत कुछ महसूस नहीं कर सका था। वहाँ की मिट्टी मुझे पता नहीं क्या कर देती है, जब भी जाता हूँ, महसूस करने के मीटर ही बदल जाते हैं। फिर, शराब भी इतनी पी ली जाती कि सब कुछ सपने की तरह चलता रहता। किरन जब यहाँ आयी, तब भी वह मुझे नई दुल्हन ही लग रही थी। घर में उसके घूमने से फि़ज़ा तो ताजी-ताजी प्रतीत होती थी, पर कहीं कुछ रड़क भी रहा था। कह कुछ ऐसा था, जो मेरे गले के नीचे नह उतर रहा था, हज़म नहीं हो रहा था।

प्रितपाल बहुत खुश था। वह कहने लगा, “क्यों बड़े ? खुश है अब ?”

“पहले मैं क्या रोता घूमता था ?”

“घूमता था, रोता ही घूमता था, तुझे सुनाई देता था या नहीं, पर मुझे देता था, मुझे तेरे अन्दर से उठती आहें सुनाई देती थीं।"

“तेरे साथ तो यार बात करने में घाटा है, तू एक की पाँच सुनाता है।"

“तू भी तो कई बार उल्टी बात कर जाता है, मैंने तो इतना पूछा है कि किरन से खुश है ?”

“नहीं भाई, तसल्ली नहीं।"

“क्या... क्या... क्या कहता है ?”

वह खीझ उठा, जैसे मैंने उसे गाली बक दी हो। मैंने कहा, “छोटे यार, बात यह है, जैसी वाइफ मैं चाहता था, वो बात नहीं बनी।"

“और तुझे क्या चाहिए ?... लड़की घरेलू है, पढ़ी-लिखी है, अच्छे घर की है, और बता, तुझे बांस चाहिए।"

“बाकी तो ठीक है, पर उसके मुकाबले कुछ नहीं।"

“तेरा दिमाग फिर गया है, तू इसका मुकाबला किसी और से क्यों करता है। इसका मुकाबला इसके साथ ही कर, तुझे इससे अच्छी लड़की नहीं मिल सकती थी।"

मैंने उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिला दी थी। और कर भी क्या सकता था। अब सब कुछ हो चुका था। अब तो किरन गर्भवती भी थी। वैसे मैंने उसे कभी महसूस नहीं होने दिया था कि वह मुझे पसन्द नहीं। उसका इसमें कोई कसूर नहीं था। मैं बल्कि उससे हमेशा छोटे-छोटे मज़ाक करता रहता।

उसका मन लग गया था। प्रितपाल और शैरन की ओर से मिलती मदद ने उसे कभी परायापन महसूस नहीं होने दिया। मैं उसे अपने कारोबार के बारे में कुछ बताता तो वह कभी ध्यान न देती, मानो उसका वास्ता दो रोटियों तक ही हो। उसे बाहर घूमने का अधिक शौक नहीं था। फिल्में और टी.वी. देखने में उसका मन लगा रहता था या फिर वह घर के काम में लगी रहती।

बीटर्स के यहाँ मैं फिर से जाने लग पड़ा था। मेरा कारोबार पटरी पर आ गया था। लैरी और बोब काम सम्भाले रहते। बाहर से काम लाने के लिए विनोद था ही। अगर कभी न भी जाता तो काम चलता रहता। घर से काम के लिए निकलता और बीटर्स के पास चला जाता। विवाह करके वापस आया तो मेरे अन्दर की गुनहगार वाली भावना ने मुझे फिर से उसके करीब ला दिया था। मेरा कई बार मन हुआ कि किरन को बीटर्स के बारे में थोड़ी-सी जानकारी दे दूँ।

आखिर, एक दिन तो उसे बीटर्स के बारे में मालूम होना ही था। विवाह से पहले वाली बातों को उसे सहना ही था। अगर बीटर्स के नाम से वह परिचित हो जाये तो मेरे अब के संबंधों के बारे में सुनना भी उसके लिए सरल हो जाएगा। ऐसा ही कितना कुछ सोचकर मैंने कहा, “मैडम, बीटर्स नाम की एक गोरी है, मेरी विजनेस पार्टनर है, उसके दो छोटे-छोटे बेटे भी हैं, लाऊँगा किसी दिन।"

वह मेरी बात अनसुनी किये रही और अपने नाखूनों पर फुआइल फेरती रही। कुछ दिनों के बाद मैं डैनी और जॉन को अपने घर ले आया। किरन बहुत खुश हुई। उनके बालों में हाथ फेरते हुए कहने लगी, “हाय ! कितने सुन्दर हैं गोरों के बच्चे।"

“इनकी माँ इनसे भी अधिक सुन्दर है।"

“वो तुम जानो। मुझे तो बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं।" कहकर वह लड़कों के साथ खेलने लगी। फिर, यदि हमें कभी बाहर जाना होता तो हम डैनी और जॉन को साथ ले जाते। डैनी मुझसे अधिक किरन से बातें किया करता। किरन इसलिए खुश थी कि इस तरह उसका अंग्रेजी बोलने का अच्छा अभ्यास हो जाता था। हम लड़कों को छोड़ने जाते तो बीटर्स को भी मिलते। किरन के माथे पर कोई शिकन नहीं देखी थी मैंने। उस वक्त पता नहीं था कि चुप रहना या ध्यान न देना, चालाकी की एक किस्म ही है। ऊपर से किरन चुपके से मुस्करा भर देती थी, पर अन्दर से बात को पूरी तरह समझती और मथती रहती थी। फिर भी, उसके फैसले मारक नहीं होते थे।

उसे यहाँ आकर एकदम जो लोग मिले, वे प्रितपाल और शैरन ही थे। मास्टर मोहन सिंह और बख्शो मौसी कुछ बाद में मिले। मास्टर मोहन सिंह का नाम मैंने इंडिया में ही किरन के माँ-बाप से सुना था कि उनका कोई रिश्तेदार, जो कि किरन का मौसा लगता था, इंग्लैंड में रहता था। मैंने उसे जानने की कोशिश नहीं की थी। किरन के आने पर भी हमने उनके बारे में नहीं सोचा। यह तो मोहन सिंह ही इंडिया गया तो हमारा पता ले आया था। उसने ही फोन किया। वे ही दोनों हमें मिलने आये थे। उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। फिर, उन्होंने हमें भी अपने घर पर बुलाया। उनके घर जाना भी मुझे अच्छा लगा था। नहीं तो किसी के घर जाकर मेरे मन को बेचैनी होने लगती थी। मास्टर मोहन सिंह की बातें बहुत संतुलित होती थीं। भूतपूर्व कामरेड होने के कारण किसी वहम-भ्रम में नहीं पड़ता था। सीधी और स्पष्ट बात करता। उसकी दो बेटियाँ डिग्री कर चुकी थीं। लड़का युनिवर्सिटी में था। हम उनके घर गये तो तीनों बच्चे हमारे साथ ही बैठे रहे। हमारी बातें पूरी दिलचस्पी के साथ सुनते रहे। मास्टर मोहन सिंह ने कहा, “मैंने तो बच्चों को पहले दिन से ही बता रखा है कि हम क्या चाहते हैं। यह भी कहा हुआ है कि जो मन में आये, करो। मैंने इन्हें कह रखा है कि इनके लिए रिश्ते मैं ही तलाश करूँगा। फिर भी, अगर लड़की को लड़का या लड़के को लड़की ऐसी मिलती है कि जिससे विवाह करके खुशी मिलती हो, तो मुझे बता देना।"

मास्टर मोहन सिंह की बात के साथ ही बख्शो मौसी बोली, “हमारी लड़कियाँ ऐसी है ही नहीं कि बाप की मर्जी से बाहर जाएँ।"

“नहीं, इनको समझा रखा है कि प्यार-व्यार सब वक्ती जज्बे होते हैं, दूध के उबाल की तरह।"

मोहन सिंह हमें मिलने आता तो ढेर सारी बातें करता। हम दोनों, मेरे दफ़्ततर के साथ वाले पब में जाते और कितनी-कितनी देर तक बैठे रहते। वे वुलिच में रहते थे, लंदन के दूसरी तरफ। इसलिए आते कम ही थे। किरन उदास होती तो मैं ले जाता। वैसे, किरन बहुत कम उदास होती। वह सहजता से हालातों के अनुरूप हो जाती।

सोनू के जन्म के बाद तो उसका मन घर में पूरी तरह डूब गया था। सोनम की मुझे किरन से ज्यादा खुशी थी। किरन लड़के की आस रखती थी कि पहला बच्चा अगर लड़का हो जाये तो चिंता खत्म हो जाती है। पर मुझे लड़की से ही तसल्ली थी। मुझे बेटी की ज़रूरत थी। सोनम ने मुझे घर से बांधना शुरू कर दिया। जब से किरन आयी थी, मुझे घर लौटने की जल्दी रहती। हर समय ख़याल भी घर में ही रहता, पर सोनू के जन्म के बाद तो मैं घर को भागता था। शाम के वक्त बाहर दिल ही न लगता। बीटर्स की तरफ भी जाता तो घर जल्दी लौटने की कोशिश करता। एक बात जो मुझे भी अच्छी न लगती, वह यह कि किरन के साथ झगड़ा हो जाता, वह भी शराब पीकर। शराबी हुआ मैं उसे कह बैठता था कि मैं उसे पसन्द नहीं करता और यह भी कि घरवालों ने मेरा विवाह जबरदस्ती कर दिया था। उसको और भी बहुत कुछ गलत कह जाता होऊँगा। इसी बात पर झगड़ा बढ़ जाता, उस रात की तरह। कभी ऐसा भी हो जाता कि मैं गुस्सा किसी और पर होता, पर उतारता किरन पर। मुझे इस बात का दु:ख भी होता, पर यही बात फिर से हो जाती। अब वह भी पूरा मुकाबला करने लगी थी।

किरन के आने पर एक बात की समझ तो मुझे हो गयी थी कि मुझे पत्नी की सख़्त ज़रूरत थी। किरन ने अब घर ही नहीं सम्भाल रखा था, मुझे भी सम्भाल लिया था। मैं बच्चों की भाँति उस पर निर्भर रहने लगा था। कमीज़ों-जैकेटों से लेकर जुराबों-बनियानों तक वही मुझे पकड़ाती। मैं इतना अपाहिज हो गया था कि अगर कोई चीज़ मुझे खुद ढूँढ़नी पड़ती तो ढूँढ़ न पाता।

कभी-कभी किरन मुझे घर में घूमती-फिरती बुरी लगती। ऐसा शराब पीने पर ही होता। मैं खाना बीच में छोड़ कर ही चल पड़ता और बीटर्स के घर जा पहुँचता। वहाँ बैठकर और शराब पीता। वहीं पड़ जाता। जब होश आता तो घर को लौट आता। किरन पूछती तो कह देता कि काम पर चला गया था, वहीं दफ़्तर में सो गया या फिर काम करता रहा था। अधिक विस्तार में वह नहीं पड़ती थी।

वीक-ऐंड पर बीटर्स के यहाँ जाता तो फक्कर मिल जाता। वह विवाह की बधाइयाँ कई बार दे चुका था। कई बार बीटर्स, कैथी, तरसेम और मैं अकेले बैठकर पीते। शराबी हुआ तरसेम मुझ पर रौब डालने की तरह कहता, “देख इंदर, तूने विवाह कर लिया, बड़ी गलती की, पर अब प्रोमिस कर कि बीटर्स को और धोखा नहीं देगा।"

कैथी उससे झगड़ने लगती, “तू कौन-सा शरीफ है, तू तो खुद वीक-ऐंड बिताने आता है। तू तो इतना हरामी है कि पैनी तक नहीं खर्च करता, सब कुछ मुफ्त में चाहता है।"

तरसेम उसे खुश करने के लिए उसका हाथ पकड़कर गाना गाने लगता।

एक दिन, ऐसे ही हम महफिल-सी लगाकर बैठे थे। अभी थोड़ी-थोड़ी ही पी थी। अचानक कैथी गम्भीर होकर बोली, “इंदर, सैंडी तो बेकार आदमी है। मैं इसकी अधिक फिक्र नहीं करती, पर तू गम्भीर आदमी है, अपने कहे पर खड़ा रहने वाला। अब तूने बीटर्स को मिस्ट्रेस बना दिया है, पर तुझे मिस्ट्रेस के हकों का भी ज्ञान है ?”