रेत भाग 7 / हरज़ीत अटवाल
दूसरा हार्ट-अटैक हुआ तो डैडी को साथ ले गया। हम पीछे रोते रह गये। उनका शरीर बहुत कमजोर हो चुका था। इतने वर्षों की बीमारी ने सारी ताकत छीन ली थी। डैडी हर समय अपने आप को ‘नदी किनारे का पेड़’ कहते रहते। कभी-कभी मुझे भी लगने लगता कि डैडी अब अधिक दिन नहीं निकालेंगे। जब कभी भी डैडी के बग़ैर मैं अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचती, तो मेरा रोना निकल पड़ता कि कैसे जीऊँगी।
नीता के विवाह पर वह बहुत खुश थे। नीता का विवाह किसी दूर के रिश्तेदार के परिवार में हो गया था। उस समय कई बार कहने लगते, “अब तो बेशक भगवान उठा ले, ऐसी ज़िन्दगी से तो...।"
फिर, वह बिन्नी के विवाह की फिक्र करने लगते। मृत्यु से एक सप्ताह पहले ही मुझसे कहा था, “बिन्नी इक्कीस साल का हुआ तो ब्याह देना है। बेटे, अगर मैं न हुआ तो यह काम कर देना।"
यूँ ही बैठे हुए हम गम्भीर बातें करने लगते। मम्मी शोर मचाती कि शुभ-शुभ बोलो।
डैडी के बाद हम सब उदास हो गये। क्रिया-कर्म की सारी रस्म संधू अंकल ने पास खड़े होकर करवाई। गुरुद्वारे में ही पाठ रखवाकर भोग डाला। भोग पड़ने तक घर में रोना-धोना होता रहा। मैंने तो इतना रोना कभी देखा ही नहीं था। जब कोई औरत मिलने आती, तो मम्मी और मेरे गले लगकर रोना शुरू कर देती। कुछ दिनों के बाद मेरा तो रोना निकलना ही बन्द हो गया था। कोई आता तो मैं परी को लेकर ऊपर जा चढ़ती। परी भी डैडी से बहुत जुड़ गयी थी। उसने भी रो-रोकर बुखार चढ़ा लिया था। मुश्किल से ठीक हुई।
हम सब डैडी की अस्थियाँ लेकर इंडिया गये। नीता भी जाना चाहती थी, पर उसे महिंदर ने जाने नहीं दिया। इंडिया पहुँचने पर फिर रोना-धोना शुरू हो गया। गाँव की औरतों ने मम्मी को बीच में बैठाकर, रुला-रुलाकर उसका बुरा हाल कर दिया। वे तरह-तरह के कीरने (नाम ले-लेकर विलाप करना) डालने लगतीं, जो मेरी समझ में ही न आते। मम्मी का तो सिर दुखना ही था, मेरा भी सिर दिनभर चकराता रहता। मातम के लिए लोगों का आना खत्म हुआ, तब जाकर कहीं सांस आया।
तभी, मैं बुआ के साथ बातों में व्यस्त रहने लगी। वैसे तो मुझे बुआ का हमेशा ही ख़याल रहता था, इंडिया आकर सबसे पहले उसी के गले लगी थी। उसके गले लगकर मुझे चैन आया था, पर इतने लोगों के बीच बहुत-सी बातें नहीं हो सकी थीं। रात में मैं बुआ के पास ही सोती। रात भर हम बातें करती रहतीं। बुआ अब पहले जैसी सेहतमंद नहीं रही थी। उसका शरीर ढल रहा था, पर उसमें रौब पहले जैसा ही था। घर के बच्चे उससे डरते थे। जब वे लड़ते तो उनमें से लड़कियाँ बुआ के पास आकर आसरा खोजतीं। मैंने एक दिन उससे कहा, “बुआ, मैं तुझे बहुत याद किया करती हूँ।"
“क्यों भई, तू किसलिए मुझे याद किया करती है ? तूने क्या लेना है मेरे से ? तू अपना घर सम्भालती है, हीरे जैसी बेटी (परी) को बाप के प्यार से दूर कर दिया।" कहते हुए वह ढुसकने लगी। मुझे हैरानी हुई कि मम्मी की तरह यह भी मेरे सिर ही इल्ज़ाम लगा रही थी। मुझे तो आस थी कि बुआ मेरे साथ खड़ी होगी। वह फिर कहने लगी, “आदमी से एक पैर दूर होओ तो आदमी सौ पैर दूर हटता है... हमें तो वो आदमी अच्छा लगता था भई।"
“इंग्लैंड में पक्का हो गया, उसे और क्या चाहिए था।"
“पर तूने छोड़ा क्यों ?”
“बुआ, मैंने नहीं, उसने छोड़ा मुझे।"
“अच्छा, तेरे चाचा लोग गये थे उसके बाप के पास। वह कहता था कि लड़की ही तलाक दे रही है। इन्होंने तेरे डैडी को चिट्ठी भी लिखी थी, पर उसने जवाब ही नहीं दिया।"
मैं कुछ कहना चाहते हुए भी चुप रही। बुआ भी और कुछ न बोली। एक अजीब-सी खामोशी कि अगर समय से मम्मी न आ जाती तो पता नहीं क्या हो जाता। शायद, मैं और बुआ दोनों ही बुक्का फाड़ कर रोने लगतीं। मम्मी आकर बुआ की चारपाई पर बैठ गयी और परी की ओर इशारा करते हुए बोली, “अब थोड़ा खेल रही है, नहीं तो मेरे साथ ही चिपटी फिरती थी।"
परी खेलती-खेलती मेरे पास आ गयी। बुआ ने उसे अपने पास बुला कर सिर पर हाथ फेरा और मुझसे पूछा, “इसका बाप इसे देखने तो आता ही होगा ?”
मैं कुछ न बोली। मम्मी ने मेरी ओर देखकर उसे बताया, “बीबी, तेरी गुड़ती ने मेरी बेटी की लैफ तबाह कर दी।"
“हाय भाभी ! मैंने क्या किया ?”
“तूने अपनी सारी हेकड़ी इसमें भर दी, नाक पर मक्खी नफ़ीं बैठने देती, अच्छा-भला घर उजाड़ कर रख दिया।"
मम्मी रोने लगी। बुआ भी। मैंने बुआ को दिलासा देते हुए कहा, “बुआ, तू मम्मी के कहे पर गुस्सा न हो, इसे पता नहीं चलता कि कौन-सी बात करनी है, कौन- सी नहीं। डैडी के बाद तो यह वैसे ही रह गयी।"
“नहीं बेटी, तेरी माँ इतनी सीधी भी नहीं, यह भी सच है। अगर मेरी किस्मत का साया तेरे ऊपर पड़ गया तो बता मैं क्या करूँ।"
“नहीं बुआ, ऐसा कुछ नहीं हुआ। रवि ही मेरे साथ नहीं रहना चाहता था। अब तुझे सारी बातें क्या बताऊँ, डैडी के साथ उसका व्यवहार ऐसा था कि सुनकर शर्म आ जाये, ऐसे बन्दे के साथ मैं कहाँ रह सकती थी। मैं इसी तरह अधिक खुश हूँ, मम्मी को क्या।"
“हाँ-हाँ, मुझे क्या ! मैं तो माँ हूँ, आंतें तो मेरी अन्दर से झुलस गयीं, तू कहती है मुझे क्या।"
“बेटी, अगर कोई सबब बनता है तो बना ले, आदमी के बगै़र औरत की इज्ज़त नहीं।"
“बुआ, इंग्लैंड में ऐसा नहीं होता। वहाँ अकेली औरत को कुछ नहीं होता। और फिर, मेरी ज़िन्दगी तो परी को पालने में ही निकल जाएगी।"
ज़िन्दगी सिर्फ़ बाल-बच्चे पालना ही नफ़ीं ... ।" बुआ कुछ कहते-कहते रुक गयी। अब बुआ मेरे संग और भी खुलकर बातें करने लगतीं। रवि के बारे में बहुत से सवाल पूछती। जब मैंने बताया कि रवि मुझे मारा-पीटा करता था तो बुआ को बहुत गुस्सा आया। उसकी तेज चलती सांसें बता रही थीं कि वह कितना दु:खी हुई थी। फिर, उसने रवि को लेकर कई दिनों तक कोई बात नहीं की थी।
एक दिन मैंने बुआ से पूछ ही लिया, “बुआ, तू मुझे बहुत सलाहें देती है, तुझे कभी मर्द की ज़रूरत महसूस नहीं हुई ?”
“चल, पगली कहीं की। ऐसा नहीं सोचते... मैं तो पाठ करने लगती थी, पूरा पाठ मुँह-जुबानी याद है। और फिर, बाप की पगड़ी का भी तो ध्यान था।"
मेरे चाचा, ताऊ और उनके बच्चों को मिलाकर बहुत बड़ा परिवार बन जाता था। शोक की रस्में खत्म होने के बाद फिर से चहल-पहल वाला माहौल बन गया। जवान लड़कियाँ और घर की बहुएँ मेरे इर्द-गिर्द बैठी रहतीं। बुआ से वे कुछ झिझकती थीं, पर मेरे साथ मज़ाक करती रहतीं। घर के आदमी एक तरफ बैठकर विचार-विमर्श करने लगते। बिन्नी के लिए रिश्ते आने लग पड़े थे। हम डैडी की अस्थियाँ लेकर आये थे, इसलिए हम सभी इस शगनों वाले काम को अगली बार के लिए रख रहे थे। एक दिन बुआ ने बताया, “भाई, सबने सलाह की है, तेरा चाचा सुरजीत चला है सूबेदार सतनाम सिंह से बात करने।"
“वह कौन है ?”
“लो बताओ तो भला, तुझे अपने ससुर का नाम भी नहीं पता?" कहती हुई वह हँसने लगी। फिर, मुझे बांहों में भरकर बोली, “देख बेटी, अब बुआ की गुड़ती को कोसते हैं सब, इसी गुड़ती की खातिर तू लड़के के साथ समझोता कर ले।"
“अब तो बुआ, बहुत साल हो गये।"
“अगर तू और वह, दोनों सच्चे हो तो सालों से कुछ नहीं होता।"
इन बातों के विषय में सोचकर मुझे लग रहा था कि यह असंभव था, पर जैसे-जैसे सोचती गयी तो लगने लगा कि यह बहुत संभव भी था। रवि को यहाँ बुला लें, अगर रवि को न ही बुलाएँ, फिर भी तो सब ठीक हो ही सकता था। रवि को मैं अच्छी तरह जानती थी। कितना भी दूर था हमसे, पर दिल से दूर नहीं हो सकता था। सोचते-सोचते मुझे चाव चढ़ने लगा। मैं रवि के बारे में सोचने लगी। इतना सोचा कि रात में सपने भी उसके ही आये। सपने में बैठा किताब पढ़ रहा था। मैंने उससे किताब छीनकर कहा, “एक तो हमें लेने नहीं आता, दूसरा अब किताब पढ़े जा रहा है।"
जिस दिन से मैं यहाँ आयी थी, मर्दों में से कभी किसी ने मेरे संग रवि को लेकर बात नहीं की थी। एक दिन, किसी ने मेरे सामने आपस में बातचीत करते हुए कहा था कि ये दुआबिये हमें बिलकुल भी रास नहीं आये। बिन्नी के विवाह को लेकर ज़रूर मेरे साथ सलाह की जाती।
अगले दिन, चाचा सीधे ही जालंधर चला गया। उसके जाते ही, उसकी प्रतीक्षा आरंभ हो गयी। चाचा रवि के पिता से कई बार मिल चुका था। वह यह यकीन दिलाकर गया था कि रवि का पिता उनकी किसी बात को मना नहीं करेगा। बुआ और मम्मी मेरे सामने ही सलाह-मशवरा कर रही थी, “अगर लड़के का बाप मान जाये तो इसे यह ससुराल भेज दें। लड़का कहाँ अपने बाप की बात टालने वाला है।"
मैं भी स्वयं को रवि के गाँव जाने के लिए तैयार करने लगी। विवाह के समय वहाँ गयी थी। उस समय उनका घर छोटा-सा था। फिर तो रवि ने बहुत से पैसे भेजे थे। ज़रूर बड़ा कर लिया होगा। रवि की माँ जब इंग्लैंड आयी, तभी हमारा झगड़ा हुआ था, पर उसने कभी कुछ नहीं कहा था। मेरे साथ तो बहुत प्यार किया करती थी। मैंने स्वयं को मानसिक तौर पर तैयार करते हुए परी से कहा, “पॉसीबल है, हमें तेरे डैडी के मम्मी-डैडी मिलने आयें।"
“रीयली ! व्हेयर दे लिव ?”
“यहीं, इंडिया में ही।"
“डैडी भी आएँगे ?”
“मे बी।"
“फिर डैडी गुड हो जाएँगे ?”
“हाँ-हाँ।"
जब कभी भी परी रवि के बारे में पूछती तो मैं कह दिया करती थी कि वह बुरा आदमी था, इसलिए हमसे मिलता नहीं था।
शाम के वक्त हम चाचा के घर में ही जा बैठ। हमारा सारा ध्यान चाचा के आने की तरफ ही था। घर में सबको मालूम था कि चाचा कहाँ गया था। इसलिए सबकी निगाह मेरे ऊपर ही घूम रही थी। कभी-कभी मुझे यह सब बहुत बुरा लगता। चाचा लौटकर आया और आते ही बैठक में चला गया। हम दालान में बैठी थीं। मम्मी और बुआ उठकर चाचा के पीछे-पीछे चली गयीं। मैं सांसें रोकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी।
कुछ देर बाद वे लौटीं। उन्हें देखकर मेरे पास बैठी लड़कियाँ उठकर चली गयीं। मम्मी मेरी ओर कितनी देर तक देखती रही और फिर रोने लग पड़ी। बुआ ने भी रोना आरंभ कर दिया और मुझे छाती से लगाकर कहने लगी, “तेरी किस्मत खोटी है बेटी, लड़के ने तो दूसरा विवाह करवा लिया।"
एकबारगी तो मुझे झटका-सा लगा। संभलकर मैंने कहा, “तो क्या हुआ बुआ, इसमें रोने वाली कौन-सी बात है ?” कहकर मैं भी रोने लगी। हमें रोता देखकर परी भी हमसे लिपटते हुए रो पड़ी। फिर, घर की दूसरी औरतें भी इस रोने-धोने में शामिल हो गयीं। मम्मी ने डैडी को याद करके विलाप किया तो बुआ ने उसे झगड़कर चुप करवाया। दो पड़ोसिन औरतें भी हमारे बीच आकर बैठ गयीं। फिर, हम सब मिलकर डैडी की बातें करने लगीं।
मेरा मन बहुत उदास रहने लगा था। रवि से मुझे नफ़रत होने लगती। मैंने वापस लौटने की तैयारी शुरू कर दी जबकि हमारे प्रोग्राम के अनुसार हमने दो हफ्ते अभी और रुकना था। मम्मी कहती, “इतनी भी क्या जल्दी है? तेरा मामा इंदर सिंह बुलाकर गया है, हम एक हफ्ता तो वहाँ रहेंगी। अब ननिहाल में भी तो रहकर देख।" “नहीं मम्मी, तू रह ले, मैं तो जाऊँगी। काम पर भी जाना है, फिर परी की पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा है।"
सभी ने बहुत रोका, पर मैंने जिद्द न छोड़ी। हम सब समय से पहले ही लौट आये। बाकी लोगों ने भी मेरे साथ ही लौटने का प्रोग्राम बना लिया था।
वापस लौटकर एक बार फिर रोना-धोना था। रिश्तेदार फिर आने शुरू हो गये। लेकिन, जल्दी ही उनका आना बन्द हो गया और ज़िन्दगी सामान्य होने लगी। मेरी छुट्टियाँ अभी पड़ी थीं। पहले मन हुआ था कि ब्रैडफील्ड फोन करके छुट्टियाँ कैंसिल करवा लूँ और काम पर चली जाऊँ, पर फिर सोचा कि काम पर जाकर कौन-सा मन लगने वाला था।
रवि द्वारा विवाह करवा लेने की ख़बर मुझे अभी भी सुन्न किए जा रही थी। जितना मैं रवि से नफ़रत करती, उतना ही मुझे उसके सपने अधिक आते। कभी सोचती कि एक बार मिलूँ तो सही। उसे भगोड़ा होने का उलाहना ही दूँ, पर फिर सोचने लगती कि अब तो मुझे उसकी सूरत देखना भी पसन्द नहीं था।
ज़िन्दगी सामान्य हुई तो एक दिन संधू अंकल और आंटी हमारे घर आये। वैसे तो वे नीता के सास-ससुर थे और आते ही रहते थे, पर उस दिन वे विशेष तौर पर आये थे। पहले फोन किया और फिर घंटा भर बाद आ भी गये। आंटी मम्मी से बोली, “बहन जी, कंवल का कुछ करो, सारी उम्र क्या ऐसे ही बिताएगी ?”
“क्या करें बहन जी, इसके डैडी तो चाहते थे कि किसी किनारे लग जाये, विवाह करवा ले... कोई लड़का हो तो देखें भी।"
“लड़का तो है, अकाउंटेंट है। बहुत बड़ी फर्म का मालिक है। वाइफ थी, छोड़कर चली गयी। दो बच्चे हैं, माँ के पास ही रहते हैं।"
उनकी बात सुनकर मैं हैरान रह गयी। सोचा कि अब दो बच्चों का बाप ही रह गया है मेरे लिए ! फिर ख़याल आया कि अब मैं भी तो दस साल की बेटी की माँ हूँ। संधू अंकल को मेरे विवाह की पड़ी रहती थी। मैं ना करती रही थी। रवि ने दूसरा विवाह करवा लिया था, इस बात की जानकारी जबसे लोगों को हुई, तभी से वे सब मुझे विवाह की सलाह देने का हक कुछ अधिक ही समझने लग पड़े थे। मम्मी ने उनसे कहा, “कंवल आपके पास ही बैठी है, इसी से पूछ लो।"
“इससे पूछते-पूछते तो बहन जी यह टाइम आ गया है।"
मुझे आंटी की बात पूरी तरह समझ में न आयी। यह संधू जोड़ी भी अजीब थी। कभी मेरे प्रति बहुत प्यार दिखाते और कभी मुझे यों लगने लगता, जैसे ये मुझे बिलकुल पसन्द नहीं करते।
नीता की सास मानो आलू बिखेर कर चली गयी। मैं विवाह के बारे में अब गम्भीर होकर सोचने लगी। वही पहली वाली रुकावटें ही मेरी सोच में पड़ रही थीं कि बेगाना आदमी परी को बेटी कैसे समझेगा। मुझे पति मिल सकता था, परी को पिता नहीं। अब परी को मम्मी के पास भी नहीं छोड़ सकती थी। परी बड़ी हो चुकी थी और मम्मी की भी पहले जैसी सेहत नहीं रही थी। फिर, सोचने लगती कि विवाह करवाना भी तो ज़रूरी था। रवि की प्रतीक्षा तो अब नहीं रही थी। एक बार सोच की लडि़याँ जुड़ने लगत तो जुड़ती चली जातं। ऐंडी के समय मन थोड़ा झुका तो था, पर बाद में खुद को मैं कोसने भी लगी थी कि यह मैं किस रास्ते पर चल पड़ी थी। अब अकाउंटेंट की बात चली तो एक बार फिर बैठकर इत्मीनान से विचार किया था, पूरे हालात के बारे में। लेकिन मन नह मानता था। मम्मी मान गयी थी। वह तो मानी ही रहती थी। मैंने भी यह लड़का देखने का विचार बना ही लिया।
सबका यह विचार था कि लड़के के साथ बैठकर बात करने के बजाय उसे पहले दूर से ही देखा जाए। शॉपिंग सेंटर में किसी बहाने से लड़के को बुला लिया गया। मैं और मम्मी भी चली गयीं। मैं घर से सोचकर गयी थी कि परी का बहाना करके मैं मना कर दूँगी। मुझे आंटी ने दूर से लड़का दिखाया। लड़का क्या था, गुड्डा था। मेरे से भी दुबला था। रवि के तो पासंग भर भी नहीं था। उसे देखकर मेरी हँसी छूट गयी। आंटी बोली, “क्या नुक्स है इस लड़के में ?”
“यह लड़का कहाँ हैं, यह तो अद्धा है, इस जैसे दो ढूँढ़ो तो मैं विवाह करवाऊँ।"
मेरा मजाक आंटी को पसन्द नहीं आया। बाद में, मम्मी भी लड़ती रही मेरे साथ कि अगर ना ही करनी थी तो किसी दूसरे ढंग से करती।
कुछ दिन बाद उन्होंने फिर एक लड़के के बारे में बताया। आंटी कह रही थी, “इस बार लड़का संधुओं का है, अगर चारों खाने चित्त न हो गयी तो कहना।"
वे मेरे विवाह को लेकर ज़रूरत से ज्यादा ही फि़क्रमंद नज़र आ रहे थे। कभी-कभी मुझे लगता कि शायद मेरा अकेले रहना उनके लिए बेइज्ज़ती का कारण बन रहा था। या फिर कुछ और। उनकी इस लड़के के बारे में दी गयी जानकारी भी अधूरी रह गयी तो मैंने शुक्र मनाया। दूसरी जगह बात चलाने लगे तो मैंने कहा, “आंटी जी, साल भर ठहर जाओ, अभी मैं डैडी को लेकर भी सोचती रहती हूँ।"
मैं अपने काम पर लौटी तो मेरी परिचित लड़कियाँ डैडी का अफसोस जताने आती रहीं। कुछ आदमी भी मेरे पास आए। ऐंडी भी आया। ऐंडी से मैंने सारे संबंध तोड़ लिए थे। हम सिर्फ़ काम से संबंधित ही बात करते। वह अभी भी मेरा सुपरवाइजर था। उसने पुरानी बात कभी याद नहीं दिलाई थी। वह मुस्करा कर बात करता और आगे बढ़ जाता। अब कुछ समय से वह मेरे संग बाहर भी जाने लगा था।
एक दिन, एक शौकीन-सा व्यक्ति अफसोस प्रकट करने आया जिसे मैंने पहले कभी नह देखा था। उसके बैज पर ‘हैरी धनोआ’ लिखा हुआ था। उसने अपने बैज की ओर संकेत करके अपने नाम का अहसास करवाया और कहने लगा, “मैं पे-सेक्सन में हूँ, आप मुझे नहीं जानते, मैं आपके डैडी से मिल चुका हूँ। वे मेरे डैडी के संग काम किया करते थे, ही वाज ए नाइस मैन, जबसे उनकी डैथ हुई है, हमारे घर में उन्हीं की बातें होती रहती हैं। मुझे उनकी डैथ का रियली दु:ख है, अच्छे व्यक्ति कहाँ मिलते हैं।"
“थैंक्स, डैडी अच्छे यूमन बीइंग थे, ही वाज बेस्ट डैड ऐज वैल।"
“श्योर, श्योर !”
मैं कम्प्यूटर पर कोई काम कर रही थी, जब वह आया। उससे बात करते समय मैं हाथ में पकड़ा काम छोड़कर बैठ गयी थी। उसने पूछा, “अभी टोटनहैम ही रहते हो ?”
“हाँ।"
“मेरे पेरेन्ट्स वलथम स्टो में रहते हैं, पर मैं पटनी में रहता हूँ। काम पर से वाकिंग डिस्टेंस पर ही। कैसा है आपका काम, हैप्पी हो ?”
“हाँ, नो कम्पलेंट।"
“क्लेरिकल स्टाफ में आ जाओ अगर मन करता है तो। काम ज़रा आसान है।"
“पर वहाँ मगजमारी बहुत करनी पड़ती है, आई एम नॉट दैट ब्रेनी।"
“यू आर ब्रेनी एंड ब्यूटीफुल, आई बेट्।"
मैंने उसकी ओर देखा। वह मुस्कराये जा रहा था। वह फिर से गम्भीर हुआ और डैडी का एकबार फिर अफसोस करके चला गया। मैं फिर से अपने काम में लग गयी। हैरी गया, पर मोहक-सी खुशबू छोड़ गया। मैं सोचने लगी कि कौन-सा इत्र इस्तेमाल करता होगा। मुझे तभी ख़याल आया कि रवि कोई परफ्यूम नहीं लगाया करता था। कहा करता था, आदमी को नैचुरल होना चाहिए।
हैरी को पहले कभी नहीं देखा था। वह अचानक ही प्रकट हो गया था। क्लेरिकल स्टाफ सबसे ऊपर वाली मंजि़ल पर था। उनकी लिफ्ट भी अलग थी और उस फ्लोर पर छोटी-सी कैंटीन भी थी। इसलिए हमारा उनसे अधिक वास्ता नहीं पड़ता था। फिर, ब्रैडफील्ड के सारे स्टाफ की एक जैसी वर्दी होने के कारण पता नहीं चलता था कि कौन कहाँ काम करता है। ऊपर से छह हजार लोगों का स्टाफ ! लेकिन, उस दिन के बाद हैरी कहीं न कहीं दिखाई दे ही जाता। कभी सीढ़ियों पर या लिफ्ट के आगे, कभी कैंटीन में या कभी यों ही चलता-फिरता। हमारी आँखें मिलतीं तो वह मुझे हाथ हिलाकर ‘हैलो’ कहता, बेशक कितनी भी दूर होता।
हैरी दूसरे पुरुषों से कुछ अलग था। ब्रैडफील्ड की चुस्त वर्दी उसकी शख्सीयत को और भी प्रभावशाली बनाती थी। उसका चलना, खड़ा होना, बात करने का अन्दाज, सब कुछ अलग-सा था। कुछ ही दिनों के बाद मेरी नज़रें उसकी प्यास महसूस करने लगीं। अगर कहीं दिखाई न देता तो एक प्रतीक्षा-सी बनी रहती।
एक दिन, मैंने हैरी को वलथम स्टो स्टेशन पर खड़े देखा। वह मेरे वाले डिब्बे में ही चढ़ आया। मेरी ओर देखकर हाथ हिलाया और मेरे करीब आ गया। मेरे साथ बैठने के लिए सीट नहीं थी। वह वहीं खड़ा रहा। मैंने पूछा, “कहाँ से आ रहे हो ?”
“पेरेन्ट्स के पास से, वहीं उनके पास मूव हो गया हूँ पक्के तौर पर।
“क्यों ?”
“वाइफ से सेपरेशन हो गयी।"
“आई एम सो सॉरी।"
“बहुत देर का झगड़ा चल रहा था... कुड नॉट हैल्प।"
“तुम्हारे बच्चे भी हैं ?”
“हाँ, टू डॉटर्स।"
“वैरी सैड फॉर दैम।"
“दैट्स माई लाइफ।"
हम एक साथ स्टेशन पर उतरे और ब्रैडफील्ड की ओर चल पड़े। मैं कुछ तेज़ चल रही थी। वह भी मेरे बराबर चलता हुआ बोला, “वैसे तो यहाँ से वलथम स्टो काफी दूर है, पर ट्यूब से बहुत कम टाइम लगता है।"
“स्टेशन कम है राह में, इसलिए।"
“यहाँ पटनी में तो मेरा फ्लैट वाकिंग डिस्टेंस पर था, डॉटर्स को स्कूल छोड़कर काम पर आ जाया करता था। आज मेरी कैलकूलेशन गलत हो गयी, पहले ही पहुँच गया।"
“कितनी बड़ी हैं तुम्हारी डॉटर्स ?”
“नाइन एंड सेवन। आई लव दैम टू मच। पता नहीं, उनके बग़ैर कैसे रहूँगा।" कहकर उसने आँखें भर लीं। मुझे उस पर बहुत तरस आने लगा। पता नहीं किस वक्त मैं कह बैठी, “मिस्टर धनोआ, इफ आई कैन डू ऐनीथिंग फॉर यू ?”
“नो थैंक्स।"
ब्रैडफील्ड पहुँचकर उसने अपना रस्ता पड़क लिया। मैं उसके बारे में सोचने लगी कि वह अपनी बेटियों को कितना प्यार करता था। दूसरी ओर रवि था जिसने परी को मुड़कर देखा ही नहीं था। उसकी ख़बर तक नहीं ली थी।
अंधेरी सुरंग के अन्त में मुझे रोशनी दिखाई देने लगी। मेरा मन करता कि हैरी को मिलूँ। पे-सेक्शन में मैं कभी गयी नहीं थी। ब्रेक में देखती रहती कि शायद इधर-उधर मिल जाए। उस दिन हैरी दिखाई नहीं दिया। मुझे कुछ कमी-सी महसूस होने लगी। अगले रोज़ हैरी खुद मेरे पास आ गया। वह प्रसन्नचित्त था और मुझसे पूछने लगा, “कितने बजे ब्रेक लेते हो ?”
“ग्यारह बजे।"
“विल यू लाइक टू हैव ए कप आफ टी विद मी ?”
“व्हाय नॉट।"
हैरी ग्यारह बजे आ गया। हम कैंटीन की ओर चल दिये। वह कहने लगा, “सॉरी, मुझसे रहा नहीं गया, तुम्हारे संग बातें करके मुझे कंसोलेशन मिलती है।"
“थैंक्स।"
“तुम्हें क्या कहकर बुलाऊँ ? कंवल या मिसेज़ ढिल्लो ?”
“मैं अब मिसेज ढिल्लो नहीं हूँ।"
“यह तो मुझे पता है, मेरी मम्मी तुम्हारी मम्मी से गुरुद्वारे में मिलती रहती है। मैंने तो बस तुम्हारा बैज देखकर कह दिया।"
“इसे भी अब बदलवा ही देना है। बस, यूँ ही आलस्य कर जाती हूँ। फिर सोचने लगती हूँ कि मैं गिल, मेरी बेटी ढिल्लो... डज नॉट लुक नाइस।"
“बेटी का नाम बदल दो।"
“मैंने पता किया था, काफी डिफिकल्ट प्रोसीजर है।"
हम कैंटीन में चाय के कप लेकर एक ओर बैठ गये। बात चलाने के लिए मैंने पूछा, “तुम्हारी डॉटर्स किस स्कूल में जाती हैं ?”
“फ्रैशवाटर प्राइमरी स्कूल, जस्ट क्रास द रिवर थेम्ज़।"
“पढ़ाई में कैसी हैं ?”
“अभी तो तेज़ लगती हैं, तुम्हारी बेटी की उम्र कितनी है ?”
“दस साल, मई में ग्यारह की हो जाएगी।"
“कोई खास बात हो गयी थी हसबैंड से ?”
“खास भी नहीं, बस, वी वर नॉट मेड फॉर ईच अदर।"
“सेम लाइक अस। दस साल की मैरिड लाइफ में एक महीना भी पीसफुल नहीं बीता, एक महीना क्या, एक हफ्ता भी नहीं बीता। नाउ आई थिंक, इनफ़ इज़ इनफ़।"
“अरेंज्ड मैरिज थी ?”
“हाँ, जान-पहचान में से थी, इंडिया से आयी थी।"
“मेरा एक्स भी इंडिया से आया था।"
“ये इंडिया से आये लोग भी अजीब कम्पलैक्स में होते हैं, अपने आप को बहुत क्लेवर समझते हैं।"
“यही प्रॉब्लम मेरे एक्स के साथ थी।"
“अब अकेले रहकर कैसा लगता है ?”
“बहुत पीस में हूँ, कोई हैडेक नहीं, कोई वरी नहीं, प्रॉब्लम नहीं।"
“फिर से सैटल होने की कोशिश नहीं की ?”
“नहीं, मैं अपनी डॉटर के साथ खुश हूँ।"
शमीम और कुछ अन्य लड़कियाँ जानबूझकर ‘हैलो’ करके हमारे करीब से गुजरीं। अब मुझे पहले की तरह उनकी चिंता नहीं थी। ऐंडी के संग घूमते हुए मेरा डर खत्म हो गया था। अगर कोई कुछ कहता तो मैं प्रत्युत्तर में उसे डपट देती थी, मुड़कर वह न बोलता। कोई मेरे बारे में क्या सोचता था, इसकी परवाह करना मैंन छोड़ दिया था। मैं जो थी, उसकी मुझे खुद तसल्ली थी। मैंने अपने आप में रहना सीख लिया था। अभी भी कांता मेरे साथ बैठती थी। उसके साथ मैं दिल की कोई बात साझी कर लिया करती थी। कांता ने धनोआ के बारे में पूछते हुए कहा था, “क्या इरादे हैं ?”
“जो होते ही हैं, सिंगल मदर के।"
“कुछ हाथ लगता है ?”
“अभी तक तो नहीं, बट, यू नेवर नो।"
“ये आदमी लोग का साला एक ही डिमांड होता है, सभी साला एक जैसा हरामी, बी केयरफुल।"
“फि़क्र मत करो।"
अब मुझे हर समय हैरी के ख़याल आने लगे। वह सुन्दर था, जवान था। शायद, मेरे लिए सही भी था। दो बेटियों का बाप होने के कारण परी के लिए भी ठीक सिद्ध हो सकता था। मैं अवसर तलाशती कि वह कोई बात करे। मैं किसी किस्म की जल्दबाजी भी नहीं करना चाहती थी। हम इकट्ठा बैठते तो दुनियाभर की बातें कर लेते। उसे फिल्में अधिक पसन्द थीं। छुट्टियों में हर साल कहीं न कहीं जाना लगा रहता। इंडिया जाना उसे अच्छा लगता था। मैं उसकी रुचियों को अपने संग मिलाकर देखती। उसके बारे में कुछ अलग तरीके से सोचना मुझे अच्छा लगता।
एक दिन, उसने अपना प्रस्ताव रखा जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। उसने कहा, “कंवल, डिस्को चलें ?”
“डिस्को ?... बहुत लेट हो जाएँगे।"
“लैट्स गो फॉर डिनर, जल्दी आ जाएँगे।"
“नहीं हैरी, तू तो जानता ही है, इंडियन लड़की इस तरह नहीं जा सकती।"
“आई थिंक वी लिव इन यू.के.।"
“हाँ, पर हम गोरे नहीं हैं।"
“आई एम थिंकिंग, वी शुड नो ईच अदर मोर।"
“ठीक है, काम पर इस तरह मिलते ही हैं।"
“आई डोंट थिंक इट्ज़ इनफ।"
“मैं चाहती हूँ, थोड़ा समय दें, वी शुड गिव इट टाइम।"
“कंवल, मैं तो हर वक्त तेरे बारे में ही सोचता हूँ। उधर से डिवोर्स लेकर, बात खत्म करके तेरे से मैरिज करना चाहता हूँ।"
“हैरी, पहले डिवोर्स ले ले, दैन वी टाक।"
मुझे उसके संग बाहर जाने में एतराज नहीं था, पर अभी सही वक्त नहीं आया था। तलाक के लिए जोर डालते हुए मैंने कहा, “तुमने तलाक कब लेना है ?”
“वकील कर लिया है, वी आर ट्राइंग टू फाइंड सम ग्राउंड्स, दैन वी विल फाइल द केस।"
एक दिन फिर उसने विवाह की बात आरंभ की। मैंने उससे कहा, “हैरी, इट्ज़ नॉट दैट इजी ! बल्कि यह इम्पोसिबल है।"
“वह कैसे ?”
“मेरी डॉटर भी है, जिधर मुझे जाना है, वह भी जाएगी, उसके बिना मैं कुछ नहीं करुँगी।"
“तेरी डॉटर मेरी भी डॉटर होगी, उसके कारण मुझे अपनी बेटियों से बिछड़ने का दु:ख नहीं होगा।"
हैरी ने मेरे कई सपनों को पंख लगा दिये। मैं सोच रही थी कि यह खुशी किसी के साथ शेयर करुँ। मम्मी को अभी बताना नहीं चाहती थी। नीता के पास अभी भी वक्त की कमी थी। कांता आम बातों के लिए ठीक थी। गम्भीर सलाह करने योग्य वह नहीं थी। मैंने परी से कहा, “मैं तेरे लिए न्यू डैडी ले आऊँ ?”
“मोम, यू सैड दिस बिफोर।"
मुझे याद आया कि ऐंडी के समय भी मैंने उससे यही सवाल तरीके से पूछा था। उसे अभी तक याद था। मैंने इस बात को और आगे बढ़ाये बिना टाल दिया।
हैरी काम पर कार में आने लगा था। ट्यूब में बीस-पच्चीस मिनट लगते थे जबकि कार में एक घंटा लग जाता। सुबह-शाम बेहद ट्रैफिक होता। काम पर गाड़ी पार्क करने की भी बहुत बड़ी समस्या थी। कार मंहगी भी पड़ती। मैं सब समझती थी कि वह कार क्यों लाता था। लौटते वक्त घर तक लिफ्ट देने का बहाना होता। मेरे संग अधिक से अधिक समय बिताने की कोशिश होती उसकी। कई बार हम कार कहीं खड़ी करके कितनी ही देर तक बातें करते रहते। कभी-कभी मुझे लगता कि मैं हैरी के बहुत पास चली गयी थी, मुझे थोड़ा संकोच करने की ज़रूरत थी। मैं हैरी के संग डिस्को या डिनर पर बाहर जाने के लिए तैयार हो रही थी। डैडी के बाद मुझे मम्मी का अधिक डर नहीं रहा था। बिन्नी भी मेरे सामने झेंप जाता था।
एक दिन मेरा मन हुआ कि हैरी का सपना देखूँ जैसा कि मनचाहा सपना पहले देखा करती थी। मैं सारी शाम हैरी के बारे में सोचती रही और उसी के बारे में सोचते-सोचते सो गयी। जब खूब तड़के जागी तो मैं हैरान-परेशान हो उठी थी कि सपना तो मुझे रवि का आया था। सारी रात उसी को देखती रही थी। रवि की वही हँसी, वही छोटी-छोटी छेड़-छाड़। वही कंधे झुकाकर चलना। मेरी आँख खुली तो मैं उठकर बैठ गयी। मैं हाँफ रही थी। मैंने उठकर पानी पिया। फिर से सोने की कोशिश की, पर नींद नहीं आयी। ऐंडी के समय भी रवि के सपने ही आते थे। मैं रात भर रवि को कोसती रही जो मुझे सपनों में भी अकेला नहीं छोड़ता था।
रवि अब स्वयं तो आने वाला नहीं था, पर हमें भी जीने नहीं दे रहा था। कोई ख़त, सन्देश, फोन कुछ भी नहीं। कभी भी हमसे मिलने की कोशिश नहीं की थी। ऊपर से विवाह करवा लिया था। पता नहीं, कौन-सी जल्दी थी। मेरा मन होता कि कहीं से रवि का फोन मिल जाये या पता ही, जाकर उससे खूब लड़ाई-झगड़ा करूँ। मन का सारा बोझ हल्का कर लूँ।
एक दिन, मैं मम्मी से पूछने लगी, “मम्मी, तुझे याद है, धनोआ अंकल होते थे, डैडी के फ्रेंड।"
“हाँ, धनोई गुरुद्वारे में मिला करती है, तू किसलिए पूछ रही है ?”
“मैंने आज यूँ ही किसी का नाम अखबार में देखा था।"
“कोई ख़बर थी ?”
“नहीं, ख़बर नहीं थी। ऐसे ही कुछ छपा था, मैंने ध्यान से पढ़ा नहीं। मुझे लगा कि यह नाम कभी सुना है।"
“धनोई मिला करती है, आदमी तो गुरुद्वारे कम ही आता है।"
अगले इतवार मैं मम्मी के संग गुरुद्वारे जाने के लिए तैयार हो गयी। आमतौर पर उसे बिन्नी छोड़ आता, या फिर किसी से लिफ्ट मिल जाती। कभी मैं भी छोड़ आया करती। पिछले कुछ वर्षों से मम्मी हर इतवार गुरुद्वारे जाने लगी थी। मुझे भी वह कहती रहती, पर मेरे पास कपड़े धोने या परी को नहलाने का बहाना होता। मैं मम्मी के संग गुरुद्वारे जाने के लिए तैयार हुई तो वह हैरान होकर बोली, “मैं तो तुझे कब से कह रही थी, गुरुद्वारे माथा टेकने ज़रूर जाया कर, पाठ सुनाकर, पाठ भी करा कर। तुझे तो यह भी नहीं मालूम कि गुटका कहाँ रखा हुआ है।"
वह बहुत खुश थी। वह उत्साह में भरकर परी को तैयार करने लगी। वह परी को हमेशा साथ चलने के लिए कहती थी, पर वह इतवार को सो कर ही न उठती।
अब गुरुद्वारे तो बहुत हो गये थे। नार्थ रोड पर पड़ने वाले गुरुद्वारे मंड संगत अधिक जुटा करती थी। यह टोटनहैम और वलथम स्टो के बीच में पड़ता था। इसकी कार पार्किंग बहुत बड़ी थी, इस कारण भी यहाँ संगत अधिक आ जाया करती। मैं यहाँ अधिक न जाया करती, पर दिन-त्योहार पर चली जाती।
कार खड़ी करके हॉल की ओर जाते समय मेरे मन में धनोई को देखने की उतावली छाई पड़ी थी। मेरी नज़रें हैरी जैसी शक्ल की किसी औरत को तलाश रही थीं। अभी भोग नहीं पड़ा था।
मैंने अन्दर जाकर माथा टेका और परी से भी टिकवाया। मेरे अन्दर बेचैनी-सी हो रही थी। सोच रही थी कि भोग जल्दी पड़े तो मैं धनोई आंटी से कोई बात करुँ। मैं हैरी के बारे में कुछ और जानना चाहती थी।
परी अन्दर से उठकर बाहर आ गयी और दूसरे बच्चों के संग खेलने लगी। मैं भी उसके पीछे बाहर आ गयी। मौसम ठीक होने के कारण काफी भीड़ थी। इतनी भीड़ में धनोई कहाँ मिलने वाली थी। कुछ देर बाद भोग पड़ गया। लोग परशाद लेकर बाहर निकलने लगे। मम्मी भी आ गयी और मुझसे गुस्सा होकर बोली, “तू भी कमाल करती है, यहाँ बच्चों में बच्ची बनी पड़ी है, भोग तो पड़ लेने देती।"
“मम्मी, तेरी ये परी नहीं टिकी।"
उसने अपने परशाद में से थोड़ा-सा मेरे हाथ पर रखा और थोड़ा परी को दे दिया। इतने में एक औरत मम्मी को गले लगकर मिली। उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें और तराशी हुई भौंहें हैरी जैसी थीं। मैंने उससे ‘सत्श्री अकाल’ की तो मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोली, “जीती रह बेटी, जीती-बसती रह।" इतना कहकर वह चुप हो गयी मानो कुछ गलत कह गयी हो। फिर, मम्मी से पूछने लगी, “बहन जी, यह बड़ी है ?”
“हाँ।"
“अच्छा बेटी, रब भली करेगा। वह सबकी तरफ देखता है, सुनेगा एक दिन।" उसने उदास चेहरा बनाकर कहा। फिर, मम्मी को बताने लगी, “बहन जी, हमारे साथ भी बुरा होने वाला था, पर वाहेगुरु ने हाथ देकर बचा लिया।"
“वह कैसे ?”
“हमारा लड़का हरबंश अपनी वैफ से झगड़ा किये बैठा था। यह तो सबकुछ छोड़-छाड़कर घर आ गया था, कहता था– इसे नहीं रखना, दूसरा विवाह करवाना है। हम तो बहुत डर गये थे, रब की दया से कंजकें भी हैं, यह तो कलगियों वाले ने मेहर की। दोनों के मन में मस्तियाँ पड़ और दोनों ही इकट्ठे हो गये। नहीं तो क्या मालूम क्या होता।"
“यह तो बहुत अच्छा हो गया, बहन।"
फिर, मम्मी मुझसे बोली, “चल बेटी, घर चलें।"