रेत भाग 8 / हरज़ीत अटवाल
‘इंदर सिंह, यह रहा तेरा घर।’
घर की चाबी मिलने पर मैंने स्वयं से कहा था। गाँव में दो मरले के घर को कभी भी घर कहने को दिल नहीं करता था। कई बार एक ही कमरे में सारा टब्बर सोता। बापू जी की उम्रभर की सूबेदारी भी घर का बहुत कुछ नहीं संवार सकी थी। छोटे-से उस घर में अपने अलग कमरे का कभी सपना भी नहीं आया था। यह तो शुक्र था कि मैं और प्रितपाल भाई भी थे और दोस्त भी। रात में इकट्ठे सो जाते। कभी लड़ते नहीं थे। एक दूसरे की मदद करते थे और हमारा समय अच्छा गुजर रहा था। इंग्लैंड आकर इतनी जल्दी घर खरीद सकने के बारे में सोचा तक नहीं था।
मैंने चाबी एजेंट से ली और सीधा ‘रोज़बरी गार्डन’ आ गया। यह पूरा रोड ही ऊँची जगह पर था। दो मिनट चलकर आर्च-वे स्टेशन और साथ ही बस-स्टॉप भी। शॉपिंग सेंटर भी नज़दीक ही था। मतलब यह कि सभी सुविधाओं के बीच में था यह घर। जब एजेंट मुझे यह घर दिखाने लाया था तो इसकी बड़ी तारीफ कर रहा था। एक कमरे की खिड़की खोलकर उसने कहा था, “मि. ढिल्लन, नजारा देख।”
मैं हैरान रह गया था। खिड़की में से दूर तक फैला लंदन दिखाई दे रहा था। ऊँची-ची इमारतें बहुत खूबसूरत लग रही थ। एजेंट कहने लगा, “ची जगह पर घर है और इसी दृश्य के कारण ही इसकी बीस हजार पौंड कीमत अधिक होनी चाहिए, पर मैंने तेरा लिहाज किया है। तू शरीफ बन्दा है। दूसरी बात यह कि इस मकान के मालिक ने अमेरिका जाकर बसना है, इसलिए जल्दी बेचना चाहता है। फिर, मकानों की कीमतों में आये ठहराव के कारण हमारा काम भी ठंडा पड़ा हुआ है। इसीलिए तुझे यह घर बहुत सस्ता मिल रहा है।”
मुझे एजेंट की बातें सच लगी थी, पर मैंने मज़ाक में कहा था, “मि. स्मिथ, लंदन का मौसम साफ होगा, तभी तो इस दृश्य का लुफ़्त उठाया जा सकेगा न।”
वह मेरी बात को समझकर हँसा था। मैं सोच रहा था कि मुफ़्त में एक और खुशी थी यह भी मिली।
कंवल ने इस घर को बाहर से ही देखा था। अन्दर से देखने की उसने ज़रूरत नईं समझी। डैडी-मम्मी से मैंने कहा भी कि चलो घर दिखा लाऊँ, पर उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी। डैडी तो चाहते ही नहीं थे कि मैं इतनी दूर घर लूँ। फिर, मैंने उनकी कोई सलाह भी नहीं ली थी। मैं घर उनसे दूर लेना चाहता था ताकि उनकी मेरी ज़िन्दगी में दख़लअंदाजी कम हो जाये।
बहुत सारा सामान वह गोरा घर में ही छोड़ गया था। सामान बढ़िया था। कुछ सामान मैंने पैसे देकर उससे खरीद भी लिया। कुछ नया ले लिया। कुछ मम्मी के घर में जो हमारा अपना था, उसे उठा लाये और घर रहने लायक हो गया। घर को पूरी तरह तैयार करके मैंने कंवल को उसके काम पर से लिया और नये घर में ले आया। घर के सामने खड़ा करके उसे चाबी थमायी और कहा, “ये सारी चाबियाँ घर की मालकिन के लिए।”
चाबियाँ लेकर उसने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते समय बहुत प्यार से मेरी ओर देखती रही। फिर बोली, “अब?”
“अब अन्दर चलकर अपना घर सम्भाल।”
“रवि, पश्चिम में तो तू आ बसा है, पर अभी भी तू पूरी तरह यहाँ के रस्म-रिवाज का नहीं जान पाया।”
“कौन से रस्म-रिवाज?”
“यहाँ की ट्रेडिशन है कि जब कोई कपल नया घर खरीदता है तो हसबैंड अपनी वाइफ को उठाकर पूरा घर दिखाता है।”
मैंने उसे बांहों में उठाया और सारे घर का चक्कर लगा दिया। पहले पूरा घर नीचे से दिखाया। दोनों कमरे, रसोई, गार्डन आदि और फिर ऊपर बैडरूम में ले गया। खिड़की से दिखते दृश्य को देखकर वह बहुत खुश हुई। तीनों बैडरूम दिखाकर मैंने उसे उसके बैड पर बैठा दिया। मेरी सांस फूल गयी थी। मैंने कहा, “मैंने पति वाली रस्म पूरी कर दी, तू अब पत्नी वाली पूरी कर।”
वह मुस्कराती हुई मुझसे लिपट गयी।
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घर, मेरी खुशियों की कतार में एक और जुड़ी खुशी की तरह था, जो कि मुझे बग़ैर मेहनत के मिल गयी थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इंग्लैंड में घर लेना इतना आसान होगा कि थोड़ा-सा डिपोजिट दो और बाकी की किस्तें करवा लो। डिपोजिट देने के लिए भी कंवल के पास पैसे पड़े थे, उसमें कुछ और मिलाये और घर हाथ में आ गया। अब किस्तें उतारने का मसला अलग था। घर की चाबी मिल गयी, घर के मालिक बन गये। घर हमारे नाम चढ़ गया। मुझे घर की मालिकी का इतना शौक था कि बाहर बोर्ड लिखकर लगा दिया–‘यहाँ ढिल्लों रहते हैं।’
बगै़र मेहनत से मिली खुशी से डर लगने लगता था। पर जो खुशी तुम तक पहुँच ही गयी, उसका क्या करोगे। मंजूर करनी ही पड़ेगी।
मैं एम.ए. में पढ़ रहा था, तब लोग बाहर के देशों की तरफ जा रहे थे। लेकिन, हमारे पास किराया तक भरने की हिम्मत नहीं थी। फिर, हमारा कोई रिश्तेदार भी बाहर नहीं रहता था, जो मुझे बुलाता या मेरे बाहर जाने का इंतजाम करता। एक ही राह दिखती थी कि इन देशों में बस रही लड़की से मेरा रिश्ता हो जाये, किसी भी तरह हो जाये। अंधी, कानी, लंगड़ी या विधवा, परित्यक्ता कोई भी हो, बस एकबार चला जाऊँ। यहाँ की गुरबत से छुटकारा मिल जाये। पर हमारे परिवार की इतनी बड़ी ज़मीन-जायदाद नहीं थी कि बाहर के रिश्ते आते। फिर भी, मैं सोचे बग़ैर न रहता। मेरे बापू का एक दोस्त कंवल का रिश्ता लेकर आया तो विश्वास ही नहीं हुआ। खुशी ही इतनी थी कि बताने-पूछने का मौका ही नहीं मिला कि लड़की कैसी थी। कंवल की तस्वीरें आई थीं, पर मुझे कंवल से अधिक इंग्लैंड दिखाई दे रहा था। इस रिश्ते के सच पर यकीन तो मैंने यहाँ पहुँचकर ही किया था। यहाँ पहुँचकर मैंने कंवल को देखा तो एक और खुशी मिल गयी कि वह बहुत खूबसूरत थी। सूरत में भी, सीरत में भी।
अब मैं छोटे भाई प्रितपाल और बहन कुलवंत कौर के बारे में सोचने लगा कि उनका कुछ करुँ। उन्हें भी किसी तरह इधर बुला लूँ। आते ही मुझे काम मिल गया था और कुछ पैसे भी घर को भेज दिये थे ताकि घर के हालात कुछ बदल सकें। मैंने प्रितपाल के लिए हाथ-पैर मारने चाहे। कंवल की बहन नीता अभी बहुत छोटी थी। इनके भी इधर अधिक रिश्तेदार नहीं थे, जिनके जवान लड़की होती। अभी कुछ महीने ही बीते थे कि प्रितपाल को भी साउथाल में रहते किसी परिवार ने पसन्द कर लिया और रिश्ता तय हो गया। उसके बाद, शीघ्र ही कुलवंत की भी सगाई हो गयी। उसके ससुराल वाले बर्मिंघम रहते थे और व्यापारी परिवार था। इन सबको फलीभूत होता देखकर डर लगने लगता कि कहीं इन सारी खुशियों को कोई बड़ी चोट न लग जाये। कहते हैं कि खुशियाँ के पीछे-पीछे तकलीफें भी आ रही होती हैं।
घर की खुशी के बाद प्रतिभा आ गयी। मेरी बेटी। यह भी एक बड़ी खुशी थी। प्रतिभा के आ जाने से कंवल के मम्मी-डैडी सब ही खुश थे। मम्मी का चेहरा अवश्य कुछ बदला, पर फिर ठीक हो गया कि पहला बच्चा था, लड़का फिर भी हो सकता था।
प्रतिभा का जन्म हमारी सोची-समझी योजना के अनुसार हुआ था। एक दिन कंवल ने कहा, “क्या बढ़िया बात हो अगर बेटी का जन्मदिन तेरे या मेरे जन्मदिन वाले दिन ही हो।”
“जान, ट्राई कर लेते हैं, पर अपने हाथ में ज्यादा कुछ नहीं है।”
हमने कोशिश की कि बेटी का जन्म मई माह में हो। सबकुछ सही हुआ, पर अन्त में आकर एक दिन का फ़र्क़ पड़ गया। एक दिन पूर्व ही कंवल को प्रसव-पीड़ा शुरू हो गयी। हमने डॉक्टर को अपनी योजना के बारे में बताया था, पर एक दिन प्रतीक्षा करना बच्चे के लिए खतरनाक था। उसे उसी दिन आना था और वह आ गयी। प्रतिभा के जन्म के समय ही डॉक्टर ने बता दिया था कि कंवल का स्वास्थ्य ठीक नहीं। अगले बच्चे के लिए कुछ बरस इंतजार करना पड़ेगा।
बेटी का नाम रखने के समय मैं डैडी को कुछ नाराज कर बैठा था। वह चाहते थे कि मैं गुरुद्वारे में जाकर ‘वाक’ लूँ, पर मैं जाकर रजिस्टर करवा आया। मेरे द्वारा रखा गया नाम भी उन्हें पसन्द नहीं था। मम्मी से प्रतिभा नाम का उच्चारण नहीं होता था। उसने उसे परी कहना शुरू कर दिया था। डैडी के संग मेरी बहस सहज ही हो जाया करती। मम्मी मुझसे कहती, “पुत्त, तू अपने डैडी की इन बातों के पीछे न जाया कर।”
असल में, डैडी के संग मेरी कम बनती थी। पहले कुछ महीने ठीक निकले थे, फिर उन्होंने मेरे से बग़ैर बात के बहस करना आरंभ कर दिया। जिन बातों के विषय में मेरी जानकारी अधिक होती, उनको लेकर बहसने लगते। जैसे कि किताबों के बारे में ही। मैं किताबें इंडिया से भी मंगवाता था और यहाँ से भी खरीदता रहता। हर समय मैं कुछ न कुछ पढ़ता रहता। वह किताबों को पढ़ने के नफे़-नुकसान मुझे बताने लगते। कई बार तो कह देते, “इंदर सिंह, इतना पढ़ना, तेरा दिमाग भी खराब कर सकता है।”
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मुझे जल्दी ही ‘डैगनम’ वाली फोर्ड कम्पनी में काम मिल गया था। दो हफ़्ते दिन के और दो हफ़्ते रात के। रात का काम मुझे पसन्द नहीं था, पर तनख्वाह ठीक थी। कुछ दोस्त भी बन गये थे जिनके कारण वहाँ दिल लग गया था। फिर, मैंने वहीं अन्दर से ‘मैटल फिनिशिंग’ का कोर्स कर लिया और मैं स्थायी हो गया। घर से दूर था, आर्च-वे आ गये तो और भी दूर हो गया। फिर भी मैं काम करता रहा था।
बाकी सब ठीक चल रहा था लेकिन, कंवल का अपने डैडी के प्रति हद से ज्यादा मोह मुझे तंग करता था। बाप था, मैं अधिक कह भी न पाता। जब मैं डैडी के संग बहस करने लगता तो कंवल मुझसे कहती, “तू डैडी से आरगू क्यों करता रहता है?”
“क्योंकि वह गलत होते हैं।”
“सो व्हट ? ही इज माई डैड। एंड ही इज आलवेज राइट।”
उनके घर में रहकर मैं अधिक खुश नहीं था। लेकिन, वे किराये के मकान में हमें जाने नहीं देते थे। वह घर पहली बार मुझे बेगाना लगा जब प्रितपाल इंडिया से आया। मैं उससे बड़ा था। अगर मेरे पास अपना घर होता तो सीधा मेरे पास आता और मैं उसका विवाह करता। मैंने अपनी इच्छा का इज़हार मम्मी-डैडी से किया भी, पर उन्होंने मेरी बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। ऐसा ही, कुलवंत के समय हुआ, पर उस वक्त अच्छी बात यह हुई कि कुलवंत का पति ब्याह करवाने भारत चला गया था और कुलवंत सीधे बर्मिंघम ही चली गयी। धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा। जब मैंने अपना घर लिया, लगभग उसी समय प्रितपाल ने भी अपना घर साउथाल में ही खरीद लिया। फिर, हम सब इकट्ठा होने लग पड़े। हमारी पारिवारिक महफिलें जुटने लगीं। कुलवंत का पति अजीत भी अच्छे स्वभाव का था। लेकिन, उसकी दुकान होने के कारण वह हमसे मिलने के लिए लंदन कम ही आया करता, हम ही बर्मिंघम चले जाते। फिर, कुलवंत भी दुकान सम्भालने लगी तो उसका भी हमारे पास आना कम हो गया।
कंवल का डैडी से अधिक लगाव मुझे अच्छा न लगता, पर वह मुझसे भी कम प्यार नहीं करती थी। वह काम पर से मुझसे पहले लौट आया करती। मेरे लिए दरवाजा खोलती, बहुत प्यारी मुस्कराहट से मेरा स्वागत करती। मुझसे यूँ लिपट जाती मानो फिर दोबारा अलग होना ही न हो। कभी जिद्द करने लगती कि उसे उठाकर बैडरूम में ले जाऊँ। नहाने लगती तो आवाजें लगाने लगती कि उसकी पीठ मलूँ। छुट्टी वाले दिन टेलिफोन काट कर रख देती कि कोई तंग न करे। छोटी-छोटी बात में ‘आई लव यू’ कहने लगती। मैं उससे कहता, “जान, इतना प्यार भी न दे कि बिछड़ना मुश्किल हो जाये, अगर तू मुझे छोड़कर चली गयी तो मैं तो यूँ ही मर जाऊँगा।”
मेरे साथ इतना प्यार होने के बावजूद डैडी से उसका मोह उसी तरह कायम था। हमारे आर्च-वे आने के बाद भी वह टोटनहैम में ही काम करती रही। काम से छूट कर वह डैडी के घर जा बैठती। अगर मैं रात की शिफ्ट कर रहा होता तो वह उधर ही सो जाया करती। मेरे दिन के काम पर आ जाने के बाद भी वह सहज ही मम्मी के घर रात में ठहर जाती। मुझे गुस्सा आता कि उसे ख़याल ही नहीं कि मैं भी घर में बैठा हूँ। मैं उससे कभी सीधे-सीधे तो नहीं कह पाता था, पर बातों-बातों में बहुत समझाता कि अब वह बड़ी हो चुकी थी। मैं कहता कि डैडी या मम्मी से अधिक मुझे उसकी ज़रूरत थी। इसलिए वह मम्मी-डैडी से ज्यादा मेरे बारे में सोचा करे। लेकिन, कंवल को यह बात समझ में न आती।
उस समय तो हद ही हो गयी, जब उसे पता चला कि डैडी को ‘झूला’ हो गया है। वह इस तरह रो रही थी जैसे डैडी को झूला न हुआ हो बल्कि उनकी मृत्यु हो गयी हो। वह बहुत रोई। रोई नहीं बल्कि चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। बाद में, मैंने कहा, “जान, यह पार्किन्सन डिजीज है, जानलेवा बीमारी नहीं, तू तो ज्यादा ही रियक्ट कर रही है। भगवान न करे अगर डैडी को कुछ हो गया, तो तू तो उनके साथ ही मर जाएगी।”
“तू मेरे डैडी को मरा देखना चाहता है, शेम आन यू, रवि!”
“ओह हो, जान...।”
बात करते हुए वह आग-बबूला हो गयी। मैंने उसे बमुश्किल शान्त किया। मैंने उसके साथ मिलकर ‘झूले’ की बीमारी के विषय में पढ़ना आरंभ कर दिया। यह बीमारी नर्वस सिस्टम के कंट्रोल से संबंधित थी। किसी डॉक्टर जेम्स पार्किन्सन ने इस बीमारी के बारे में विस्तार से बताया था, जिसकी वजह से उसके नाम पर ही इसका नाम रख दिया गया था। इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं निकला था। हम डैडी को लेकर कई डॉक्टरों के पास भी गये। कई जगह घूमें, पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
कई बार कंवल डैडी के घर ऐसा बैठती कि उठने का नाम ही न लेती। मैं उसे चलने के लिए कहता तो वह कहती, “तुझे घर जाने की पड़ी है, इधर डैडी की हालत देख, ज़रा सोच।”
“जान, हमें काम पर भी जाना है, सवेरे उठना है।”
“तू जा काम पर,अगर तेरा काम ज्यादा इम्पोर्टेंट है।”
तभी से एक फ़र्क़ हमारे बीच आ खड़ा हुआ था। मैं सोचने लगता कि ये जो इतनी खुशियाँ मेहनत के बगै़र मिली हैं, अब उनका पतन शुरू हो गया है। यही नहीं, लगता था, उल्टा काम शुरू होने वाला था। जब प्रतिभा को नर्सरी में डालने का वक्त आया तो उसने स्कूल मम्मी के घर की ओर ही तलाशा। मानो वह वापस जाने की तैयारी आरंभ कर दी हो। मैं बहुत परेशान रहने लगा था। मुझे दिन-प्रतिदिन लगता कि कंवल मेरे हाथों से फिसलती जा रही थी।
मैं सोचने लगता कि मुझसे कौन-सी गलती हो गयी। मैंने तो सदैव उसे प्यार किया था। अपने बराबर समझा था। पहले दिन से ही मैं ‘हम’ ‘तुम’ के चक्कर में न पड़ कर ‘तू’ ‘मैं’ में ही रहा था। वह मुझे ‘रवि’ कहकर बुलाना चाहती थी। ‘रवि’ नाम उसे अच्छा लगता था। फिर, इंदर सिंह उसके किसी मामा का नाम भी था। मैंने उसे बराबर का दर्जा देते हुए और भी बहुत-सी छूटें दे रखी थीं, जो कि भारतीय पतियों के वश में नहीं हुआ करतीं। घर मैं सम्भाल लेता था, बर्तन धोना, साफ़-सफाई करने आदि से लेकर कपड़े मशीन में डालने तक के सभी काम कर लेता था। शायद, इसीलिए भी उसकी कई बातें मुझे ज्यादा तंग करतीं। बहुत गुस्सा दिलातीं।
ऐसी ही सोच का मेरे ऊपर दबाव था कि एक दिन मैं उसे दो थप्पड़ मार बैठा था। गुस्से में आकर उसने मुझे गाली दी थी और मैं स्वयं पर नियंत्रण न रख सका। उसे मारने के बाद ही मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। मैं माफी मांगने लगा था। वह मधुमक्खी की तरह ऐसी शुरू हुई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बहुत खुशामद-मिन्नत करने के बाद उसे शांत कर पाया था और इसके बाद मुझे कई वायदे भी करने पड़े थे।
यद्यपि हालात ठीक हो गये थे, लेकिन पहले जैसे नहीं हुए थे। मैं उसके साथ झेंपते हुए बात करता। अब उसकी ‘मैं’ बहुत ऊँची हो गयी थी। घर में छोटा-सा भी झगड़ा होता तो वह एकदम कह देती, “लुक रवि, मैं जो हूँ, सो हूँ। मेरे साथ रहना है तो रह, नहीं रहना तो न सही, पर मुझे हाथ नहीं लगाएगा। अगर हाथ लगाया तो अक्ल ठिकाने लगा दूँगी।”
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इन्हीं दिनों इंडिया से माँ आ गयी। प्रितपाल कब से माँ को बुलाने का प्रोग्राम बना रहा था, पर मैं ही टाल देता था। कंवल के साथ माँ के आने को लेकर बात करता, तो वह प्रत्युत्तर में चुप्पी साध लेती। प्रितपाल नहीं माना और उसने माँ को बुलाने के लिए टिकट भेज दिये थे। माँ के आने की बात सुनकर ही कंवल के चेहरे का रंग बदल गया। मानो माँ नहीं, कोई मुसीबत आ रही हो। यहाँ तक कि वह माँ को लेने एअरपोर्ट भी न गयी। यह तो अच्छी बात थी कि माँ हमारे घर अधिक दिन नहीं रही। अधिकतर प्रितपाल के पास रहती या कुलवंत के यहाँ चली जाती। कभी-कभार ही हमारे घर आया करती। जब आती तो कंवल घर पर न होती, उसे जाकर लाना पड़ता। कई बार रात में वह डैडी के घर ही ठहर जाती थी। मैं झल्लाने लगता तो माँ कहती, “चल छोड़ पुत्त, उसका बाप बीमार है, कोई बात नहीं।”
एक बार माँ हमारे पास आई तो उसकी सेहत ठीक नहीं थी। कोई स्त्रियों वाली बीमारी थी। माँ के आने पर कंवल का मुँह तो टेढ़ा रहता ही था। मैंने उसे कहा, “आज माँ को डॉक्टर के यहाँ ले जाना।”
“मैं नहीं जा सकती, डैडी की बांह की मालिश करनी है।”
“वह काम तो तेरी मम्मी भी कर सकती है।”
“फिर डॉक्टर के यहाँ तू भी तो ले जा सकता है।”
“तुझे बताया था माँ ने, कोई लेडीज वाली प्रॉब्लम है।”
“पर अपनी डॉक्टर भी तो लेडी है, नो प्रॉब्लम। उसे अकेले भेज दो।”
“जान, तू डैडी के मामले में कुछ ज्यादा ही कर रही है। वहाँ तेरी मम्मी है, भाई-बहन हैं।”
“तू भी तो अपनी माँ को लेकर कुछ ज्यादा ही कर रहा है। तेरी बहन इसे सम्हाल सकती है, तेरा भाई और उसकी वाइफ भी।”
मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था। मुझे डर लगता कि कहीं मेरे सब्र का प्याला न छलक जाये। मैं माँ को शैरन के पास छोड़ आया और स्वयं पर काबू रखकर कंवल से बोला, “तू इस घर को बसता क्यों नहीं रखना चाहती ? डिफिकल्ट क्यों हुए जाती है ?”
“मैं समझी नहीं।”
“अब माँ के आने पर देख तू कैसा बिहेव कर रही है। चल यह छोड़, तू यहाँ अपने घर में क्यों नहीं रहती, तेरा मेरे साथ विवाह हुआ है।”
“रवि, मेरे डैडी बीमार हैं, तू मुझे उनकी लुक आफ्टर क्यों नहीं करने देता ?”
“वहाँ मम्मी है, इस घर को तेरी वहाँ से ज्यादा ज़रूरत है। तेरे डैडी की बीमारी ऐसी है कि उम्रभर इसी तरह रहेगी। हम सबको समझ लेना चाहिए कि उनके जीने का तरीका अब यही है।”
“रवि, तू डैडी की बीमारी को अंडर एस्टीमेट कर रहा है।”
“तेरे डैडी को कोई गोली नहीं लगी, इस बीमारी वाले मरा नहीं करते।”
“तू मेरे डैडी को मरा हुआ देखना चाहता है।”
“नहीं, मैं इस घर को सुरक्षित देखना चाहता हूँ। मुझे दिखाई दे रहा है, तू अब मुझे पहले जैसा प्यार नहीं करती।”
“रवि, यू नो हाउ मच आई लव लू, पर डैडी...।”
“डैडी, डैडी, डैडी... वह साला डैडी न हो गया, खुदा हो गया। इससे तो अच्छा वह मर जाये, मेरा घर तो बच जाये।”
वह मुझे गालियाँ बकते हुए उठ खड़ी हुई और प्रतिभा को उठाकर चलती बनी। कई दिन तक मम्मी के घर में रही। मैं ही वहाँ हो आता तो हो आता, पर वह न आई। मैं हर रोज़ उसकी मिन्नतें करता।
अब मेरी माँ के वापस लौटने की तैयारियाँ हो रही थीं। माँ कभी भी कंवल के खिलाफ कुछ नहीं बोलती थी। शायद, वह समझती थी कि उसने तो वापस लौट जाना है। वह हमारे लिए कोई ऐसी बात छोड़कर नहीं जाना चाहती थी कि बाद में झगड़ा होता रहे या कश-म-कश बढ़े। वह जब भी हमारे घर आती, कंवल की मम्मी और डैडी को मिलने अवश्य जाती। फोन भी करती रहती। अब भी उन्हें अलविदा कहने गयी। कंवल उधर ही थी। हम वापस लौटने लगे तो वह भी हमारे संग चल पड़ी। मुझे अच्छा लगा, पर मेरा मन गुस्से से भरा पड़ा था। वह माँ के साथ बहुत प्यार से पेश आ रही थी। मैं सोचने लगा कि माँ के जाने के बाद कंवल के साथ कोई फैसला करुँगा। अगर उसने डैडी के घर में रहना है तो मैं अपने घर को किराये पर देकर वहीं उसके पास ही चला जाऊँगा। रात में हम बातें करने लगे तो बहस छिड़ गयी। पहले सोचा कि इसे कोई सलाह दूँ या फिर कोई दूसरी राहत खोजी जाये। मैं सहजता से बात कर ही नहीं पाया। मैंने व्यंग्य में कहा, “आज डैडी कैसे रहेंगे तेरे बगै़र?”
“मम्मी, समय से दवाई दे देगी, बांह की मालिश कर देगी।”
“तुझे यहाँ नींद आ जाएगी?”
“अगर कहे तो वापस चली जाती हूँ।”
“मैंने तो तुझे बुलाया भी नहीं था। जब लेने जाता था तो आती नहीं थी। जान, मेरा अन्त क्यों देखना चाहती है।”
“रवि, अन्त तो तू मेरा देखना चाहता है, जो अब सोने के समय बोले पर बोले जा रहा है।”
“तेरा अन्त मैंने देख लिया जान, तू मेरे साथ नहीं रहना चाहती।”
“तू अपने साथ नहींह रखना चाहता तो मैं क्या करुँ। तुझे फीलिंग ही नहीं कि मेरा डैडी बीमार है।”
“इतना बीमार भी नहींह कि घर बर्बाद कर लिया जाये।”
“घर बर्बाद करने पर तो तू तुला हुआ है। रवि, अगर कोई बात करनी है तो सीधे-सीधे कर, इस तरह अपसैट करना है तो मुझे नहीं तेरी ज़रूरत।”
“उस कंजर बाप की ज़रूरत है, जिस कुड़ी चो... की खातिर...।”
वह उठकर मेरी ओर बढ़ी। वह गंदी-गंदी गालियाँ देने लगी। मैं गुस्से में पागल हो उठा और मैंने उसे पीट दिया। मैंने अपने आप पर काबू पाने का बहुत यत्न किया, पर पा न सका। माँ ने आकर छुड़ाया। प्रतिभा एक ओर खड़ी होकर रोये जा रही थी। कंवल ने पैरासीटामोल की गोलियों की पूरी शीशी खा ली। मुझे बहुत गुस्सा चढ़ा हुआ था। मैंने उसे नहीं रोका कि जो करना था, करे। रोज़-रोज़ की लड़ाई खत्म हो। कुछ देर बाद ही उसकी आँखें मुंदने लगीं तो मैंने एम्बुलेंस बुला ली।
वह दो-तीन दिन अस्पताल में रही। सभी उसे देखने गये। माँ भी जाती रही। प्रितपाल और शैरन भी गये, पर मैं नहीं गया। मुझे गुस्सा था कि गलती के ऊपर एक और गलती की थी उसने। अस्पताल से वह डैडी के घर ही चली गयी। प्रतिभा पहले से ही उधर थी। मुझे काम पर जाना होता था, इसलिए उसे माँ के पास छोड़ दिया था। कंवल उधर ही रह गयी और मैं इधर। मुझे लगा कि यह हमारे अलग होने की नींव थी। मैं अगले नये सफ़र के लिए तैयारी करने लग पड़ा।
कभी-कभी मैं स्वयं पर हँसने लगता, “इंदर सिंह, और भर ले मुफ़्त की खुशियाँ बांहों में।”
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मैं अधिक दु:खी होता तो प्रितपाल के पास चला जाता। वह फुर्सत में होता तो पब में ले जाता। वह मेरी बात कम सुनता और अपनी अधिक कहता। वह कहने लगता, “तुझे पता है बड़े, बापू जी क्या कहते हैं ?”
“क्या ?”
“औरत का चाल चलन ठीक हो तो आदमी को न छोड़े।”
“यहाँ ईगो की प्रॉब्लम है।”
“तेरी कौन-सी ईगो कम है।”
“मैं अपनी ईगो को मार सकता हूँ घर की खातिर, पर उधर केस कुछ दूसरा ही है। इसकी बुआ अपने आदमी से किसी बात पर लड़कर आ गयी और सारी उम्र उसने अपने घर में बैठकर बिता ली, वापस नहीं गयी, सिर्फ़ ईगो की खातिर। वही बुआ इसकी आइडल है। यह तो अक्सर कह देती है– मैं बुआ जैसी हूँ, शक्ल से भी और अक्ल से भी।”
“इस सिच्युएशन में मैं तो कहूँगा कि उसे अपनी ईगो की ओट में अपना घर खराब न करने दे।”
“बता क्या करुँ ?”
“बार-बार अलख जलाये जा, बार-बार पुकारे जा।”
“आखिर कब तक ?”
“जब तक तू टूटता नहीं।” प्रितपाल के साथ बात करते हुए मैं किसी नशे में डूबे साधू की भाँति आँखें मूंदता।
मुझे उसकी बात में कुछ दम नज़र आता। इतने दिन कंवल का फोन नहीं आया था। मैंने किया तो पहले कुछ गुस्से में बोली, पर फिर ठीक हो गयी। वापस आने से साफ इंकार कर दिया। मैंने फिर फोन किया तो खर्चा मांगने लगी।
एक दिन, मैं उनके बगै़र बहुत उदास हो गया। घर में मैं अकेला था। घर काटने को पड़ रहा था। प्रतिभा की भी याद आ रही थी। मैं उनके घर पहुँच गया और घंटी बजाई। कंवल ने ही दरवाजा खोला। मैंने बहाने से उसे कार में बिठाया और कार दौड़ा दी। कार को मैंने होर्स-शू हिल पर ही रोका। होर्स-शू हिल से हमारी कितनी ही यादें जुड़ी हुई थीं। मैंने अपने प्यार का वास्ता दिया। प्रतिभा के नाम पर मिन्नतें कीं, पर वह न मानी। उसकी ‘ना’ भी अजीब थी। इस ‘ना’ में नफ़रत नहीं थी, बस अहं था।
उसने खर्चे का मुझ पर मुकदमा कर रखा था। उसे जेब खर्च देने में मुझे अधिक एतराज़ नहीं था। लेकिन, खर्च लेने का उसका तरीका गलत था। कचहरी जाना मुझे अपमानजनक लगता था। जब खर्चे के दावे का नोटिस आया तो मैंने प्रितपाल से कहा, “ये लोग तो साले कुछ ज्यादा ही पागल हो गये। इनका कोई इलाज दिखाई नहीं देता।”
“चल एकबारगी और पुकार कर देखते हैं, मैं चलता हूँ तेरे साथ और बुड्ढे़ से बात करके देखते हैं।”
प्रितपात मेरे संग पंचायती बनकर गया। हम घर गये तो हमारा सत्कार मम्मी ने किया। हमें देखकर उसका माथा खिल उठा। डैडी अन्दर बैठे थे। उनकी सेहत बहुत गिर चुकी थी। हाथ और पैर ज्यादा हिल रहे थे। सिर के बाल कटवा दिये थे, शायद डॉक्टर ने सलाह दी हो, नहीं तो वह कट्टर सिक्ख थे। बाल कटवाने का प्रश्न ही नहीं था। मुझे उनसे बहुत हमदर्दी होने लगी। लेकिन उनकी अकड़ पहले से कहीं अधिक थी। मैंने सोचा कि अपने अपाहिजपन को पूरा करने के लिए ऐसा बर्ताव कर रहे होंगे। मैं खामोश रहा। प्रतिभा को मैंने उठाने की कोशिश की, पर वह मेरे से दूर भाग रही थी। अवसर देखकर प्रितपाल ने ही बात चलाई, “अंकल जी, मैं तो भाभी को लेने आया हूँ। छोटी-छोटी बातें बड़ी बनती जा रही हैं। बसा-बसाया घर बर्बाद होने को हो।”
“काका, हम कौन-सा सुखी हैं ?”
“अंकल जी, सुखी तो यह भी नहीं, मारा-मारा फिरता है, किसी गलत रास्ते पर चल पड़ा तो... ।”
इस बात पर डैडी गुस्से में आ गये। उनकी जुबान थुथलाने लगी और वह अटक-अटककर कहने लगे, “मेरा नाम अमरीक सिंह गिल है, मैंने आज तक किसी से ओए नहीं कहलवाई, यह जहाँ धक्के खाता है, खाये, गलत रास्ते जाये या सही, मुझे परवाह नहीं। जब यह लड़की को सुखी नहीं रख सकता, तो फिर हमारा क्या लगता है।”
“अंकल जी, हसबैंड-वाइफ का मामला है, हम उनकी बातों में आये बिना इनका निपटारा करने की कोशिश करें।”
“कोई बात नहींह, अभी इसे अक्ल नहीं आई, ज़रा और धक्के खा लेने दे।”
“नहीं अंकल जी, धक्के तो नहीं हम खाने देने वाले, मैं तो यह चाहता हूँ कि आपकी भी और हमारी भी इज्ज़त इसी में है कि यह घर बसता रहे।”
डैडी का गुस्सा बढ़ने लगा। उनसे बोला नहीं जा रहा था। वह उठकर खड़ा होने लगे तो मम्मी ने पकड़कर बिठा दिया और हमसे कहा, “पुत्त, अब तुम जाओ। फिर बात करेंगे। तुम्हारे डैडी की सेहत ठीक नहीं।”
हम उठकर बाहर आ गये। कंवल हमारे सामने नहीं आई। शायद, बाहर गयी हुई हो क्योंकि हम बताकर भी नहीं आये थे।
प्रितपाल को मुझसे अधिक गुस्सा था। वह कहे जा रहा था, “यह बुड्ढ़ा अपना अलग ही कैंप लगाये बैठा है। अरे बुड्ढ़े, कब्र में तो तेरी टांगें हैं, बेटी को जीने दे। बड़े, तू घबरा मत।”
मैं प्रितपाल जितना दु:खी नहीं था। ऐसा सब कुछ देखने का अवसर मुझे पहले मिल चुका था। डैडी की बेरुखी मैंने पहले भी देख रखी थी। कंवल भी उस दिन से ‘न-न’ किये जा रही थी। प्रितपाल का वास्ता इनके ऐसे बर्ताव के साथ पहली बार पड़ा था। उसने कहा, “यह बुड्ढ़ा सारी बीमारी की जड़ है, इसका कोई गला घोंट दे तो सब ठीक हो जाये।”
हम टोटनहैम से चले तो साउथाल तक बुड्ढ़े को मारने की तरकीबें घड़ते रहे। अगले दिन रात वाली स्कीमों को याद कर खुलकर हँसे।
शीघ्र ही, कचहरी की तारीख भी आ गयी– खर्चे के बारे में। मैंने फोर्ड में से काम छोड़ दिया था ताकि मुझ पर खर्चा कम पड़े। घर के मोर्टगेज की किस्त भी रोक ली। कचहरी में गये तो बात कंवल के हक में नहीं गयी। बुड्ढ़े को देखते ही मेरा पारा चढ़ने लगा था। पता नहीं मेरे मन में क्या आया, कचहरी के बाहर उसे देखकर मैं उसकी ओर बढ़ा, जैसे अभी उसको कुछ कर दूँगा। मैंने उसे हाथ लगाया ही था कि वह गिर पड़ा और मेरा गुस्सा एकदम ठंडा पड़ गया। मैं स्वयं को कोसने लगा कि यह मैं क्या करने चला था। मैं हड़बड़ाकर वहाँ से चला आया।
जब कचहरी में खर्चे का दावा कंवल न जीत सकी, तो फिर से उसने फोन करने शुरू कर दिये। मेरा भी दिल करता था कि प्रतिभा को देखूँ और कंवल से मिलूँ। एक दिन मैं उन्हें शॉपिंग करवाने ले गया। दिनभर हम घूमते रहे। बहुत अच्छा लगा। कंवल भी बेहद खुश थी। मुझे यकीन था कि आज वह मेरे साथ घर चलेगी। मैं सोच रहा था कि इनके बिना मैं अब तक कैसे जी रहा था। मैंने कंवल से कहा, “जान, चल घर चलें, अब न मत करना।”
पर वह दूसरी ओर देखने लगी। मुझे और अधिक दु:ख हुआ। जैसे किनारा मिलकर फिर से छूट गया हो।
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एक दिन प्रितपाल का फोन आया। पूछने लगा, “कंवल लौटकर घर आई कि नहिं ?”
“नहीं तो, क्यों ?”
“किसी को हफ़्ते भर के लिए रूम चाहिए।”
“सिर्फ़ हफ़्ते के लिए ?”
“हाँ, मेरे किसी कुलीग को अपने मुल्क वापस लौटना है, अगले संडे। लेकिन उसके लैंड लोर्ड ने उससे फ्लैट आज ही खाली करवाना है। अगर तू एडजस्ट कर सकता है तो बता।”
“तेरा कुलीग है, भेज दे, एडजस्ट करने को क्या है।”
“एक और बात।”
“वह भी बता।”
“मेरा कुलीग एक औरत है, चाइनी ओरीजन की मलेशियन औरत।”
“तू औरतों को कुलीग कब से रखने लग पड़ा ?”
“तुझे तो पता ही है मेरा, इतनी हिम्मत मुझमें कहाँ है। तू बता, भेजूँ ?”
“भेज दे, कोई प्रॉब्लम खड़ी करने वाली न हो। मुझे तो हर समय मिनी कैब पर ही रहना है।”
मैंने फोर्ड का काम छोड़कर कैबिंग शुरू कर दी थी। खाली बैठकर गुजारा कहाँ होना था।
अगली शाम एक चीनी लड़की अपने दो अटैची लेकर आ गयी। मैंने दरवाजा खोला तो कहने लगी, “हैलो, मैं बी हूँ, बी लग, पॉल की दोस्त।”
मैंने रस्मी स्वागत करने के बाद उसे अन्दर बुलाया। उसके दोनों अटैची फ्रंट-रूम में लेकर आया। वह फ्रट-रूम की वस्तुओं पर नज़र डालते हुए अपनी कहानी बताने लगी कि उसने अपने मकान मालिक को मकान खाली करने का नोटिस दे रखा था। पर समय से सीट बुक न होने के कारण उसकी बुकिंग लेट हुई। उधर मकान में नये किरायेदार आ गये, जिससे उसे मकान खाली करना पड़ा और वह मुसीबत में फंस गयी। वह प्रितपाल की तारीफ किये जा रही थी, जो कि कठिन समय में उसके काम आया।
बी गठीले शरीर की चुस्त लड़की थी। उसके अन्दर मुझे एक ख़ास तरह का आकर्षण दिखाई दे रहा था। मुझे वह मलेशिया के बारे में बताने लगी कि उसके पिता का अपना सिनेमा था, जहाँ वे हिंदी फिल्में चलाया करते थे। हिंदी के कई शब्द वह बोल लेती थी। रात होते देखकर मैंने पूछा, “बी क्या खाओगी ?”
“कुछ ज्यादा नहीं। क्या बना रहे हो ?”
“मुझे कुछ बनाना नहीं आता, मैं तो टेक-अवे ही ले आया करता हूँ।”
वह रसोई में गयी। फ्रीज़र खोला। कंवल के समय का ही पड़ा हुआ था। वही काम से लौटते समय शॉपिंग कर लिया करती थी। बी अल्मारियों को खोलकर देखने लगी कि घर में क्या-क्या था। सब कुछ निरख-परखकर बोली, “तुम आराम से बैठ जाओ, आज तुम्हारे लिए मैं पकाऊँगी।”
मैंने बकारडी में कोक डालकर गिलास उसे पकड़ाया। वह पीती रही और साथ ही खाना बनाती रही। उसने चाइनीज तरीके से मछली-चावल बनाये। इतना स्वादिष्ट खाना मैं पहली बार खा रहा था। कंवल खाना बनाने में इतनी माहिर नहीं थी। मुझे बी की घर में उपस्थिति बहुत अच्छी लग रही थी। कंवल के बाद कोई औरत मेरे इतना करीब पहली बार घूम रही थी। बी बातचीत में बहुत होशियार लग रही थी। वर्किंग वीजा पर कुछ वर्ष रहकर वापस लौट रही थी। मेरे बराबर उसने बकारडी पी। मैं जो भी डालता, वह पी जाती, न नहीं करती थी।
रात को सोते समय उसे बैडरूम दिखा दिया। मैंने कमरे के दरवाजे के बीच खड़े होकर पूछा, “बी, तुझे गुड नाइट कहूँ ?... या कहूँ, मेरे कमरे में चल, या तू मुझे अपने कमरे में रह जाने के लिए कहेगी ?”
वह कुछ न बोली, मुस्कराई और हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया।
बी ने एक सप्ताह रहना था, पर चार सप्ताह रह गयी। पहले मैं अधिक देर तक टैक्सी चलाता रहता था, पर अब उसके संग घूमता रहता। मुझे कंवल का दर्द कम महसूस होता। बल्कि खुशी होती कि कंवल की सज़ा यही थी। न वह छोड़कर गयी होती, न मैं बी के साथ दोस्ती करता।
इन दिनों में कंवल का फोन भी नहीं आया। मैंने मन में सोचा कि उस दिन वाली शॉपिंग का सामान खत्म होगा, तभी न फोन करेगी।
जितने दिन बी रही, मेरा ध्यान भी कंवल की ओर नहीं गया। बी चली गयी। एक हफ़्ता तो यूँ ही आनंदित रहा। प्रितपाल का फोन आया। वह कहने लगा, “बड़े, तू तो यार अच्छा निर्मोही हो गया, कम से कम मेरा थैंक्यू ही कर देता।”
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कंवल का फोन आये बहुत दिन हो गये थे। मुझे प्रतीक्षा थी कि वह खर्चे के लिए फोन करने ही वाली होगी। अब तक तो कर दिया करती थी। एक दिन, मैं घर लौटा तो देखा कि कंवल की ओर से घर बेच देने का नोटिस आया पड़ा था। एक बार तो मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी। लेकिन, मैं सम्भल गया। बात यहाँ तक पहुँची थी तो यह भी होना ही था। घूम-घुमाकर उनकी आँख घर पर होनी ही थी। इसे बेचने पर कुछ पैसे निकलते ही। मैं सब कुछ भूलकर अपने भविष्य के बारे में सोचने लगा।
सबसे आसान और सीधा रास्ता था कि प्रितपाल के घर चला जाता। एक कमरे में उसके बेटे सोते थे, एक में वे दोनों और एक कमरा खाली था, जहाँ मैं गुजारा कर सकता था। शैरन का स्वभाव भी मेरे प्रति ठीक था। पर इस तरह वहाँ जाकर रहने में उनकी ज़िन्दगी में सीधा दख़ल पड़ता। पति-पत्नी के सौ पर्दे होंगे, यह मुझे सही नहीं लगा। फिर सोचा कि प्रितपाल से कहूँगा कि साउथॉल में ही कोई कमरा या फ्लैट मेरे लिए तलाश कर दे, यह इलाका जिसके साथ मेरी यादें जुड़ी हुई थीं, ही छोड़ दूँ। फिर, मेरे मन में पता नहीं क्या आया कि मैंने हौलोवे पर एक फ्लैट किराये पर ले लिया और घर बिकने से पहले ही वहाँ चला गया। मेरे अन्दर किसी कोने में यह बात बैठी हुई थी कि शायद कंवल लौटना चाहे, अगर मैं दूर रह रहा होऊँगा तो कैसे आएगी। फिर, नज़दीक रहूँगा तो कभी प्रतिभा को भी देख सकूँगा।
घर बिकने वाली बात बड़ी तकलीफ़देह थी, पर मैंने प्रितपाल को नहीं बताया और अकेले ही कुछ देर शराब पीकर इस तकलीफ़ को बर्दाश्त कर लिया। मुझे पता था कि प्रितपाल भी दुखी होगा और मेरे साथ मिलकर नशे में डूबा रहेगा और काम पर भी नहीं जाएगा। प्रितपाल को उस दिन मालूम हुआ जिस दिन भगवंत मेरे हिस्से का सामान छोड़ने उसके घर गया। मुझे नहीं पता था कि कंवल इस तरह करेगी और मेरा सामान प्रितपाल के घर भेज देगी। सामान को देखकर प्रितपाल भी बहुत उदास हो जाता। मैं उसे कहता, “छोटे, तू तो इस तरह उदास हो गया, जैसे बेटी का दहेज लौट आया हो।”
“ओ यार, यह मुल्क साला उल्टा है। भला ये बातें पहले कभी सुनी थी। चल, तू फि़क्र न कर, मैं जल्दी ही तेरे लिए किसी बी लग का इंतज़ाम करता हूँ।” कहकर वह आँखों-आँखों में हँसता। हम ऐसी बातें करते हुए पीने लग जाते। मैं यह भी जानता था कि शराब डिप्रैशन भी पैदा कर सकती थी। डिप्रैशन जिसे मैं बीमारी नहीं, पाखंड समझा करता था, अब महसूस होने लगा था कि यह तो बहुत खतरनाक बीमारी थी। हालांकि यह खुद गले लगाई गयी बीमारी थी, पर बुरी थी। शराब पीकर आदमी अपने आप को मनफी करने के बारे में सोचने लगता है। खास तौर पर मेरे जैसी स्थितियों में। मैंने अपनी ज़िन्दगी की दिशा को मोड़ना शुरू कर दिया। मैंने फिर से कसरत आरंभ कर दी। निरंतर लायब्रेरी जाने का समय निश्चित कर लिया। काम करने के घंटे भी निश्चित कर लिए कि इतने बजे से लेकर इतने बजे तक काम करना है और फंलाने दिन छुट्टी करनी है। मिनी कैब में ही काम करने वाली मीना के साथ दोस्ती बढ़ा ली। कभी-कभी मुझे खुशी होती कि मैंने अपने आप को सम्भाल लिया था। कई बार, मैं अपने आप से कह बैठता, “जान, तू इंदर सिंह को इंदर सिंह में से खारिज नहीं कर सकती।”
अगला झटका मुझे तब लगा जब तलाक का नोटिस आ गया। अब मेरी डाक प्रितपाल के घर आती थी, पर वह खोलता नहीं था। मुझे जब समय मिलता, जाकर ले आता। मैं चाहता था कि इस झटके को अकेला ही झेलूँ, प्रितपाल को न बताऊँ। लेकिन, मेरे से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। एक दिन ज्यादा शराब पीकर उसे फोन कर ही दिया। वह उसी समय आ गया और मुझे अपने संग साउथॉल ले गया। हम दोनों कुछ दिन मिलकर शराब में डूबे रहे। कंवल ने तलाक के लिए अर्जी दे थी। कितना कुछ झूठ बोल कर तलाक के लिए ग्राउंड बनाई थी। मेरा दिल करता कि तलाक का केस लड़ूँ और उसे तलाक न लेने दूँ। मैंने प्रितपाल से कहा, “छोटे, यह औरत सरेआम झूठ बोले जा रही है कि मैंने इसके साथ बुरा सलूक किया, इसे टेलि नहीं देखने दिया, इसे नहाने के लिए गरम पानी नहीं दिया, इसे बहुत मारता रहा, मैं केस डिफेंड करना चाहता हूँ, मैं कोर्ट में बताऊँगा कि यह सब झूठ है।”
“बड़े, उसने तलाक लेना है तो उसके लिए ग्राउंड चाहिए ही, अगर तू अब रोक भी ले तो दो साल बाद आटोमैटिक हो जाएगा। और फिर, तू तलाक को क्यों रोकता है ? उसे ऐश करने दे, तेरा हम अब धूमधाम से ब्याह करेंगे, सूबेदार का बेटा घोड़ी चढ़ेगा।”
मैंने अर्जी पर अपनी सहमति दे दी और वह इलाका छोड़ देने का फैसला कर लिया। अब कंवल की प्रतीक्षा करना बेमानी था। प्रतिभा को मिलने देना भी उसके हाथ में था। मैंने ईलिंग में फ्लैट ले लिया। प्रतिभा के तीस पौंड हफ़्तेभर के खर्चे के तौर पर अपनी ओर से बांध दिये। सीधे बैंक में करवा दिये।
तलाक की डिग्री प्रितपाल के घर पहुँची, तो मैंने सोचा कि कंवल को फोन करके तलाक की मुबारकबाद ही दे लूँ। वह रोने लगी और बोली, “रवि, मुझे नहीं चाहिए तलाक, यह सूजी बैरिमन की मिस्टेक है, मुझे तलाक नहीं, तेरी ज़रूरत है। यह तो तलाक की पहली डिग्री है।”
“फिर टैक्सी लेकर आ जा मेरे पास।”
“रवि, मेरे डैडी अभी ठीक नहीं, अभी नहीं आ सकूँगी।”
मैंने कुछ नहीं कहा। उसने फिर कहा, “रवि, मैं आज ही सूजी बैरिमन को फोन करके यह तलाक कैंसिल करवा रही हूँ, आई लव यू, रवि।”
मैंने फोन रखा। एक बार तो मुझे लगा कि कंवल फिर से मेरे पैरों में जंजीरें डाल रही थी। इसके बाद, कंवल से फोन पर अक्सर बातें होने लगीं। वह खुश होती। कभी मुझे यह भी लगता कि हमारे संबंधों में इतनी बड़ी दरार पड़ चुकी थी कि इसका भरना कठिन था। मैं फिर सोचने लगता कि अब जमाना बदल चुका है, पति-पत्नी का रिश्ता दो-तरफा है। उसके भी हक हैं, इच्छाएँ हैं। इस सोच के और अपने प्यार के सामने यह दरार, यह खाई बड़ी चीज नहीं। भर जाएगी। निशान भी मिट जाएँगे। कुछ वक्त लगेगा। सब हमारे वश में ही होता है।
छह हफ्ते गुजरे तो दूसरी डिग्री अर्थात फाइनल डिग्री भी आ गयी। मैंने सोचा कि चलो, फातिहा पढ़ा गया। मैं एक बार प्रतिभा को देखना चाहता था। फिर पता नहीं वह मुझे कब मिले। मुझे पहचानेगी भी कि नहीं। एक बार उसे देख लूँ और कंवल को अलविदा कह लूँ। फिर सोचता कि क्या फायदा। जिस गाँव ही नहीं जाना, उसकी राह भी क्यों पड़ना। असमंजस में पड़े-पड़े कार का स्टेयरिंग टोटनहैम की ओर घूम ही गया। पार्क एवेन्यू पहुँचा। कंवल बहुत प्यार से मिली। जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। वह बेसब्री से बोली, “रवि, सब गड़बड़ हो गयी, दूसरी डिग्री भी गलती से हो गयी। मैंने वकील से बात की थी, वह कहती थी कि रवि एफिडेविट दे दे, तो तलाक कैंसिल हो जाएगा, चिंता की बात नहीं।”
मैंने प्रतिभा को एक बार गोदी में उठाया, चूमा और उसे वापस कर दिया। कंवल अभी भी कहे जा रही थी, “रवि, आई लव यू, आई डोंट वांट डिवोर्स, मैं तेरे साथ रहूँगी, बस ज़रा डैडी ठीक हो लें।”
उसकी शक्ल देखकर मेरी हँसी छूट गयी। ऐसी हँसी कि रुकने का नाम ही न ले। मैं हँसते हुए कार चलाने लगा। इतना हँसा कि मुझसे कार चलाई नहीं जा रही थी। कुछ आगे आकर कार एक तरफ खड़ी की और रोने लगा। फिर, पता नहीं कितनी देर वहाँ कार में बैठा रोता रहा।