विवाहेतर व्यभिचार / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
यह भारत में ही सम्भव है कि यहां पर व्यभिचार न केवल एक नैतिक लांछन है, बल्कि वह वैधानिक रूप से दंडनीय अपराध भी है! वास्तव में व्यभिचार शब्द में ही हेय-भावना है, उसे लांछन की तरह लिया जाता है। उचित-यौनाचार और अनुचित-यौनाचार की कल्पना में विवाह को उचित और व्यभिचार को अनुचित सदियों से बतलाया जा रहा है।
मैं तो समझता था कि दो वयस्कों के द्वारा परस्पर सहमति से बनाए गए यौन सम्बंधों का आधार व्यक्तिगत रुचि, निर्णय और आकांक्षा होते हैं। अधिक से अधिक, सामाजिक संदर्भ में औचित्य और युक्तिसंगत की शब्दावली में आप इस पर विनयपूर्वक संवाद कर सकते हैं। किंतु दंडनीय अपराध! यह तो मध्यकालीन सोच की अति है!
यौन आकांक्षा का संस्थानीकरण करके समाज बहुत संतुष्टि का अनुभव करता है। कि यह रहा पुरुष, यह रही स्त्री, ‘हमने’ आपका विवाह कर दिया, अब आप परस्पर यौनाचार करें। आपको अभी यह अपराध करने की अनुमति है।
विवाह के पूर्व यौनाचार न करें, विवाह के पश्चात अन्य साथी से यौनाचार न करें। विवाह के पूर्व जो पाप है, विवाह के पश्चात वही धर्म है, किंतु उसी साथी के साथ, जो हमने आपके लिए चुना है!
एक अदम्य, नैसर्गिक, स्वाभाविक कामना का ऐसा श्रेणीकरण उस समाज ने किया है, जो वस्तुतः मनुष्य की आकांक्षाओं से न केवल भयभीत है, बल्कि संभवतः स्वयं भी उन आकांक्षाओं के अवरुद्ध होने से कहीं न कहीं कुंठित है।
कहीं इसीलिए तो भारतीय समाज यौन कुंठा का सुषुप्त ज्वालामुखी नहीं बन गया है!
क्या ही आश्चर्य है कि धर्म, समुदाय, समाज, परिवार, रीति, नीति, नियम, विधि, ये सब अमूर्त और परिकल्पित प्रत्यय हमारी चिंताओं के दायरे में रहते हैं, एक जीवित मनुष्य ही हमारी चिंता के दायरे में नहीं रहता!
हमारे यहाँ तो अभी तीनेक साल पहले तक क़ानून की एक धारा (भादवि, 497) वैसी भी हुआ करती थी, जो कहती थी कि एक विवाहित स्त्री अपने पति की अनुमति से ही अन्यत्र यौन संबंध स्थापित कर सकती है! इस बात का क्या अर्थ है? क्या एक स्त्री का पति उसका शासक है, नियंता है, स्वामी है, जो वह इस तरह के निर्णय उसके जीवन के बारे में लेगा? और वही क्यों लेगा? क्या स्त्री भी इस तरह के निर्णय पति के बारे में ले सकती है?
देखा जाए तो धारा 497 इस बिंदु पर मौन थी कि अगर कोई विवाहित पुरुष किसी ‘वयस्क, किंतु अविवाहित’ लड़की से, परस्पर सहमति से, यौन संबंध स्थापित करता है तो इसे ‘व्यभिचार’ की श्रेणी में माना जाएगा या नहीं, और ज़ाहिर है, ऐसा करने से पूर्व उसे अपनी पत्नी की अनुमति तो ख़ैर नहीं ही लेना होगी!
यानी ना केवल यौन-सम्बंधों के प्रति अपरिपक्व धारणा, बल्कि स्त्री-द्वेष तक को हमारे यहाँ क़ानूनी मान्यता प्राप्त है। धारा 497 को समाप्त कर माननीय सर्वोच्च अदालत ने इस बात का संकेत दिया था कि भारतीय समाज शायद अब परिपक्वता की ओर अग्रसर हो, किंतु अगर हम वैसे और क़ानूनों की पड़ताल करने बैठें तो हमें कितने और मिलेंगे? मिसाल के तौर पर 377 को ही ले लीजिये, जो अभी तीनेक साल पहले तक प्रभावी था और यौन-चेष्टाओं के सम्बंध में यह निर्णय करने का प्रयास करता था कि ‘आर्डर ऑफ़ नेचर’ क्या है और क्या नहीं, और सुखशैया में क्या करना आपराधिक है और क्या न्यायसम्मत!