समलैंगिकता / पवित्र पाप / सुशोभित

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समलैंगिकता
सुशोभित


सुख शब्द का एक अनन्य मानवीय संदर्भ है।

सुख एक मानवीय शब्द है। सुख की चाहना ही मनुष्य को परिभाषित करती है।

यह भला है या बुरा, इसका निर्णय मैं नहीं करता। इसके गहरे मनोवैज्ञानिक और अतिभौतिक अभिप्राय होते हैं। विश्व व्यवस्था और उसमें मनुष्य की स्थिति इतने सरल विषय नहीं हैं, जिन्हें हम सतही नागरिक संहिताओं से माप सकें। प्रकृति में कहीं भी ‘सुख’ का विचार नहीं है!

‘इवोल्यूशन’ का विचार है, ‘सर्वाइवल’ का विचार है, ‘इंस्टिक्ट्स’ के तर्क से प्रकृति संचालित होती है।

किंतु मनुष्य के लिए ये सब काफ़ी नहीं। मनुष्य को ‘सुख’ और ‘संतोष’ भी चाहिए। देह के लिए सुख, मन के लिए संतोष। ‘सर्वाइवल’ उसके लिए पर्याप्त नहीं।

पशुओं को केवल भोजन चाहिए, मनुष्य के लिए भोजन में रस होना आवश्यक।

पशु प्रकृति की एक व्यवस्था के वशीभूत होकर यांत्रिक रूप से संसर्ग करते हैं, मनुष्य के लिए सम्भोग ना केवल सुख बल्कि उसके भावनात्मक विकास का भी आधार है।

प्रकृति में प्रजनन संतानोत्पादन का माध्यम है। मनुष्य के लिए संसर्ग संतानोत्पादन के साथ ही सुख का भी साधन है। सम्भवतया, सुख का अधिक!

यौनसुख को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ कहा गया है। काव्य और शिल्प के अनेक रूपों के मूल में उसी सुख का संधान है। यह सुख मनुष्य के लिए एक निजी, कोमल, निष्कवच अनुभूति है, जिसकी किसी अन्य से तुलना नहीं की जा सकती।

अगर सेक्स केवल संतानोत्पादन के लिए होता तो आप उसकी रीति नीति तय कर सकते थे, किंतु अगर सेक्स सुख के लिए है, तो उसकी कोई संहिता तय करना कठिन हो जायेगा, क्योंकि अंततः वो एक निजी और निरापद परिघटना है, क़ानून व्यवस्था से उसका सरोकार नहीं है।

अदालत का कहना है कि समलैंगिकता को अब क़ानूनी अपराध नहीं माना जाएगा।

इस पर ख़ुशी मनाने की भी क्या बात है। आश्चर्य तो इस पर है कि अभी तक इसे अपराध माना जा रहा था और भूलसुधार में इतना समय लग गया!

समलैंगिकता के संदर्भ में एक शब्द का इधर बहुत उपयोग किया जा रहा है और वह है- अप्राकृतिक।

किंतु हमें अनुमान नहीं है कि भोजन को पकाकर खाना भी अप्राकृतिक है, वस्त्र से शरीर को ढांकना भी अप्राकृतिक है, वातानुकूलन भी अप्राकृतिक है, किंतु यदि मनुष्य ने अपने सुख, सुविधा और संतोष के लिए प्रकृति की आधारभूत मान्यताओं को बदला है, तो यौन आकांक्षा को लेकर वह केवल संतानोत्पादन के लिए संसर्ग तक सीमित नहीं रह सकता था।

दरअसल, बक़ौल युवाल नोआ हरारी, हर वो चीज़ जो घटित हो सकती है, प्राकृतिक है। अगर कोई चीज़ अप्राकृतिक है तो वह घटित हो ही नहीं सकती, भौतिकी के नियम उसकी इजाज़त ही नहीं देंगे। मिसाल के तौर पर, प्रकाश की गति से तेज़ यात्रा करना- यह अप्राकृतिक है, क्योंकि यह- प्राकृतिक-विज्ञान के अभी तक ज्ञात मानदण्डों पर- असम्भव है। किंतु जिन चीज़ों को हमने अप्राकृतिक बताया है, वो सभी हरसम्भव प्राकृतिक हैं। हो सकता है, वो किन्हीं देशकाल-परिस्थितियों में प्रचलित ना हों। प्रचलित और प्राकृतिक में बहुत भेद होता है।

जिस दिन मनुष्य ने वायुयान की परिकल्पना की, उस दिन वह वास्तविकता बन गया। जिस दिन संगणक का विचार मनुष्य के मन में कौंधा, उस दिन सूचना प्रौद्योगिकी का आरम्भ हो गया। हर वह चीज़ जो मनुष्य की कल्पना का आश्रय है, सम्भाव्य होने को आतुर है। और मनुष्य ने इतनी कल्पनाएं किसी और परिघटना के लिए नहीं की हैं, जितनी सेक्स के लिए की हैं।

दो व्यक्तियों के निजी निर्णय और सुख पर किसी भी तरह का दुर्भावनापूर्ण वक्तव्य देना सभ्यता के अनुरूप नहीं हो सकता, इससे अधिक इस विषय पर कुछ कहा नहीं जा सकता।

किंतु विषय विस्तार के लिए कहूं कि मुझे आश्चर्य हो रहा है कि समलैंगिक को ‘गे’ का पर्याय माना जा रहा है और तमाम चुटकुले और फब्तियां पुरुष समलैंगिकों को लेकर ही चलाए जा रहे हैं, जबकि ‘लेस्बियन’ यानी स्त्री समलैंगिकता के लिए यह कोई कम महत्व का विषय नहीं है।

मेरा निजी मत है कि एक स्त्री के लिए ‘उभयलिंगी’ या ‘बायसेक्शुअल’ होना पुरुष की तुलना में कहीं सहज, स्वाभाविक और सुखकर है।

शैया में विजय की भावना से संचालित उद्यत, उद्धत, अधीर और अल्पजीवी पुरुष की तुलना में एक स्त्री किसी अन्य स्त्री को कोमलता के अधिक सुदीर्घ और सम्वेदनशील आशयों से प्रेम कर सकती है और उसके अस्तित्व के उन कोनों अंतरों तक अपनी ऊष्मा के साथ पहुंच सकती है, जिसके लिए पुरुष के पास ना समय है ना सम्वेदनशीलता।

यह स्त्री के लिए पुरुष पर निर्भरता से मुक्त होने का भी एक माध्यम है। अपने जीवन से संतुष्ट और आत्मनिर्भर स्त्री संसार की सबसे सुंदर परिघटना होती है। लोक मान्यता के गढ़ों को तोड़कर स्त्री को अपने सुख के अन्वेषण के वे प्रयास निःशंक होकर करना चाहिए, प्रकृति के अकाट्य नियम उसे पुरुष की ओर खींचेंगे, इस तथ्य के बावजूद।

सुख की चाहना अच्छी है या बुरी, नैतिक है या अनैतिक, इस बहस में नहीं जाऊंगा, क्योंकि यह इतना सरल विषय नहीं है, जितना मालूम होता है।

किंतु सुख का एक अनन्य मानवीय संदर्भ है, इसको लेकर मैं स्पष्ट हूं।

और इसको लेकर भी कि अपने एकांत में आत्मविभोर दो व्यक्तियों से समाज और राजनीति की सत्ताएं जितना डरती हैं, जितना विद्वेष उनसे रखती है, उतना किसी और से नहीं। क्योंकि उस एक क्षण में वे एक उपयोगी सामुदायिक आइडेंटिटी नहीं रह जाते, अपनी मानवीय गरिमा में निरे निष्कवच भर होते हैं।