सुनंदा की डायरी / स्त्री / राजकिशोर

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सुमित के कमरे में दाखिल हुई, तो वह एक अंग्रेजी पत्रिका पढ़ रहा था। मुझे देखते ही बोला, 'लो भाई, तुम्हीं जवाब दो।'

मैंने पूछा, 'किस बात का?'

उसने पत्रिका मेरी ओर बढ़ा दी। कवर पर बड़े-बड़े अक्षरों में छपा हुआ था : ह्वाट डू फेमिनिस्ट्स वांट? (नारीवादी चाहती क्या हैं?) कवर पर तीन रंगीन तसवीरें छपी हुई थीं। एक तस्वीर में एक सुंदर लड़की अंग्रेजी ढंग से नाच रही थी। दूसरी तस्वीर में एक थुलथुल-सी लड़की काँच के खूबसूरत गिलास में शराब पी रही थी। तीसरी तस्वीर बेडरूम की थी - एक मॉड लड़का एक मॉड लड़की को हाथों से उठाए हुआ था और लड़की की कमर से उसकी जींस की पैंट खिसक कर नीचे आना चाह रही थी। कवर देख कर मुझे हँसी आ गई।

मैंने कहा, 'सर, इसमें तो मुझे कहीं नारीवाद दिखाई नहीं पड़ रहा है।'

तुम कहना क्या चाहती हो?

जो कुछ यहाँ दिखाया गया है, वह तो सामान्य बातें हैं। इनके लिए नारीवाद की क्या जरूरत है ?

मैं क्या जवाब दूँ ? यह सवाल तो संपादकों से पूछा जाना चाहिए। आजकल हर चीज को परिभाषित करने की जिम्मेदारी उन्हीं ने उठा रखी है।

संपादकों और पत्रकारों की ऐसी की तैसी। उन्हें तो हर चीज को सनसनीखेज बनाने में मजा आता है। इसी से उनकी दुकान चलती है।

असल में, इनका मानना है कि स्त्रियों का मामला इतना गंभीर है कि इसे सिर्फ औरतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

तो सुनिए। पुरुषों का मामला भी इतना गंभीर है कि उसे सिर्फ पुरुषों के हाथ में छोड़ना उचित नहीं होगा। '


तो नारीवाद की तुम्हारी परिभाषा यही है ?


पता नहीं। लेकिन अगर ऐसी परिभाषा बनाई जाए, तो गलत नहीं होगा। अभी तक पुरुष ही तय करते आए हैं कि स्त्रियों को कैसा होना चाहिए। अब स्त्रियाँ तय करना चाहती हैं कि पुरुषों को कैसा होना चाहिए।

मैं ऐसा नहीं सोचता। किसी को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि दूसरे को कैसा होना चाहिए। यह एक गलत हस्तक्षेप है।

हो सकता है। सवाल यह है कि पुरुष ऐसा करते ही क्यों हैं कि स्त्रियों को हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़े ?


यह पुरुष समाज की नादानियों में एक है। इसकी सजा भी उसे पर्याप्त मिल चुकी है।


मतलब ?

स्त्री को व्यक्तित्वविहीन बना कर उसने अपना भी सर्वनाश कर लिया। जब आप दूसरे का दमन करते हैं, तो उसके साथ-साथ आपका भी एक हिस्सा दमित हो जाता है। पुरुष ने स्त्री का दमन किया, इसलिए वह एक ऐसे साथी से वंचित हो गया , जिसके साथ उसका अपनेपन का संबंध हो , जो उसके सुख-दुख में सच्ची साझेदारी कर सकता हो। दमन करने वाले और दमित होने वाले के बीच कोई ईमानदार रिश्ता नहीं हो सकता।

तो क्या पुरुषों से पुरुषों का सच्चा और ईमानदार रिश्ता रहा है ?

यही तो रोना है। पुरुष ने संसार की सत्ता अपने हाथ में ली और उसका कबाड़ा कर दिया। उसने प्रकृति को पराजित किया, फिर अपने से कमजोर पुरुषों को गुलाम बनाया और स्त्रियों की संपूर्ण घेरेबंदी कर दी। इससे पुरुष का अधिकार क्षेत्र बढ़ गया, वह हर चीज का नियंता बन बैठा, परंतु वह आत्महीन भी हो गया। जो पुरुष स्वयं गुलाम हो गए, उन्होंने भी अपने स्त्री समाज को गुलाम बना कर रखा। जब आप किसी को गुलाम बनाते हैं, तब उसके मनुष्य होने का अधिकार आप छीन लेते हैं। आपकी नजर में वह आज्ञाकारी मशीन हो जाता है। मशीनों के साथ रहते हुए आदमी का मनोरंजन भले होता रहे, पर उसका एकाकीपन कम नहीं होता, बल्कि और बढ़ जाता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष जिस हद तक स्त्री पर शासन करता है, उस हद तक वह स्वयं भी अरक्षित हो जाता है। उसे यह डर बना रहता है कि स्त्री कहीं विद्रोह न कर दे।

निश्चित रूप से। दूसरे का स्वत्व छीन कर कोई भी आदमी निश्चिंत नहीं रह सकता। इसलिए उसे तरह-तरह से घेरेबंदी करनी होती है। कभी धर्म से, कभी कानून से, कभी नैतिकता से और कभी-कभी प्रेम से भी। जो प्रेम स्वतंत्रता की उपज है, वही स्वतंत्रता के अपहरण का माध्यम बन जाता है। पुरुष-प्रधान समाज में इसे ही विवाह कहा जाता है।

शायद इसीलिए स्त्रियों को हजारों वर्षों से अपनी मर्जी से विवाह करने की स्वतंत्रता नहीं रही। वह एक वस्तु थी, जिसे पिता देता था और पति ग्रहण करता था। इस तरह, वह दोनों जगह पराधीन रहती थी। कन्यादान जैसे शब्द इसी मानसिकता की उपज हैं।

पराधीनता का आलम यह था कि जब लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई, तब स्त्रियों को वोट देने के अधिकार से वंचित रखा गया। संपत्ति का अधिकार भी उन्हें बहुत विलंब से मिला।


तो आपकी नजर में मातृसत्ता वाला समाज ही बेहतर था ?

यह कहना मुश्किल है। स्त्री जननी है, इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि परिवार उसके इर्द-गिर्द केंद्रित रहे। लेकिन मातृसत्ता पर आधारित समाजों के बारे में हमें पता ही कितना है? जिन समुदायों के बारे में हम थोड़ा-बहुत जानते हैं, वे विकसित समुदाय नहीं हैं। इसलिए उनके आधार पर कोई निर्णय नहीं किया जा सकता। वैसे, मेरी अपनी मान्यता यह है कि सत्ता स्त्री के आसपास केंद्रित हो या पुरुष के इर्द-गिर्द, वह अच्छी नहीं हो सकती।

लेकिन यह तो आप मानेंगे ही कि पाशविक युद्ध में वही जीतता है जो ज्यादा पाशविक है। कुश्ती में सज्जन दुष्ट से हमेशा पराजित हो जाएगा। लड़ाई जीतने के लिए बल और क्रूरता, दोनों चाहिए। स्त्री इसीलिए हार गई, क्योंकि उसके पास ये दोनों ही नहीं थे।

संभव है। स्त्री के पास अगर कभी सत्ता थी, तो उसे अपनी सत्ता को बचाने की कला सीखनी चाहिए थी। लेकिन अगर वह इस मैदान में उतरती, तो वह स्वयं पुरुषवत हो जाती। तब इतिहास उसी दिशा में आगे बढ़ता जिस दिशा में वह पुरुषों की पहरेदारी में बढ़ा है।

लेकिन स्त्रियों ने अपनी पराधीनता को चुपचाप स्वीकार कैसे कर लिया ? क्या यह कुछ अजीब बात नहीं लगती ?

इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। सत्ता हड़प लेने के बाद पुरुष स्त्री को दासी बनाने लगा। उसने प्रकृति और जीव-जंतुओं की तरह स्त्री को भी अपनी संपत्ति मान लिया। उसके बाद जो सिलसिला बना, वह आज तक जारी है। इसके लिए उसने भौतिक दमन के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक औजारों का भी सहारा लिया। स्त्रियों के मन में बचपन से ही यह भावना भर दी जाती थी कि उनका काम पति की सेवा करना और उसे सुख प्रदान करना है। गुलामी सिर्फ शारीरिक नहीं होती, मानसिक भी होती है। इसके अलावा...

...इसके अलावा स्त्री के पास संपत्ति नहीं होती थी, उसके पास आय के साधन नहीं थे, अपनी सुरक्षा तक के लिए उसे पुरुष पर निर्भर रहना होता था। फिर वह विद्रोह करती भी तो कैसे ?


विद्रोह वह करता है जिसके पास स्वतंत्र जीवन जीने का कोई विकल्प हो। पुरुष ने चारों ओर से स्त्री को घेर रखा था। वह एक पुरुष से विद्रोह करती, तो दूसरा पुरुष उसे लीलने के लिए लालायित रहता था। अपनी अनैतिक सत्ता की सुरक्षा के लिए ही पुरुष को शक्ति के सभी साधनों पर एकाधिकार कायम करना पड़ा। पाशविक ताकत के बिना उसका वर्चस्व कायम रह ही नहीं सकता था। आज भी जिसके पास सत्ता है, वह या तो हथियारों के बल पर है या दौलत के बल पर। दौलत भी हथियार ही है। दौलत और हथियार के बीच घनिष्ठ रिश्ता है। दौलत की रक्षा के लिए हथियार चाहिए और हथियार बनाने या खरीदने के लिए दौलत चाहिए। अमेरिका इसका सबसे बड़ा प्रतीक है।


इसका अर्थ यह भी निकलता है कि चूँकि राष्ट्रीय सत्ताएँ पुरुषों के हाथों में केंद्रित हैं, इसलिए राष्ट्रों के बीच प्रतिद्वंद्विता और मार-काट की जो परंपरा चली आ रही है, उसे पुरुष बनाम पुरुष के रूप में ही देखना चाहिए। नहीं ?

जरूर। नैतिक सत्ता को छोड़ कर बाकी सभी सत्ताएँ प्रतिद्वंद्विता पर आधारित होती हैं। दुनिया इतनी बड़ी है कि कोई भी व्यक्ति या समुदाय उस पर कब्जा नहीं कर सकता, अगरचे कोशिश कइयों ने की। इसलिए वर्चस्व का द्वंद्व कभी समाप्त नहीं हुआ। वह आज भी जारी है। लेकिन यह जमाना उपनिवेशीकरण से लड़ने का है। मेरे एक मित्र का कहना है कि स्त्री इस धरती पर आखिरी उपनिवेश है। सो वह भी अपनी आजादी के लिए छटपटा रही है।

सुमित, क्या यही नारीवाद नहीं है ?

हाँ, पर नारीवाद इससे आगे भी जाता है। वह यह भी जानना चाहता है कि पुरुष सत्ता से मुक्त होने के बाद स्त्री की भूमिका क्या होगी। इस तरह, नारीवाद स्त्री व्यक्तित्व की खोज भी है। यह काम ज्यादा कठिन है। आजादी पा लेना उतना मुश्किल नहीं है जितना पाई गई आजादी का उपयोग करना। स्त्री की यह खोज अभी भी बनी हुई है।

शायद अब वह चरण आ गया है जब स्त्रियों को चाहिए कि वे पुरुषों को कोसना छोड़ दें। इसका मतलब यह नहीं है कि पुरुषों की नई कारगुजारियों पर निगाह न रखी जाए या इनकी आलोचना न की जाए। यह तो सतत प्रक्रिया है। लेकिन इतना ही महत्वपूर्ण यह है कि स्त्री अच्छे समाज को अपने ढंग से परिभाषित करे और उसकी ओर बढ़ने में अपनी भूमिका की तलाश करे।


मुझे लगता है कि स्त्री पुरुष की अनैतिक सत्ता को तभी नष्ट कर सकती है, जब वह अपनी नैतिक सत्ता स्थापित करने का संघर्ष करती है। इस संघर्ष की रूपरेखा बनाना ही नारीवाद का मुख्य अजेंडा होना चाहिए। यह नहीं हो सकता कि व्यवस्था का संचालन पुरुष करता रहे और उसी में स्त्री अपने लिए न्याय की खोज करती रहे। उसे व्यवस्था को अपनी मानवीय जरूरतों के हिसाब से नए साँचे में ढालने के रास्तों की खोज खुद करनी होगी।

लेकिन यह खोज क्या वर्तमान समाज में संभव है ? जब तक समाज का यह ढाँचा जारी है, तब तक स्त्री अपनी सही भूमिका की तलाश कैसे कर सकती है ?


इसीलिए तो, सुनंदा, निरा नारीवाद काफी सिद्ध नहीं हुआ। इसके साथ मार्क्सवाद या समाजवाद को जोड़ना जरूरी हो गया। निरा नारीवाद का मतलब है पुरुषों को कोसना, उनकी कटु से कटु आलोचना करना, स्त्री की हर दुर्गत के लिए उन्हें ही जिम्मेदार मानना। इससे पुरुषों के मन में नारीवाद के प्रति आक्रोश पैदा हुआ। उन्होंने नारीवादियों का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया।


लेकिन क्या यह स्वाभाविक नहीं था ?

क्या स्वाभाविक नहीं था?

यही कि पुरुष ने स्त्री को इतने लंबे समय तक और इतना ज्यादा सताया है कि वह पुरुष को अपने शत्रु के रूप में देखने को बाध्य हो गई। भारत में आज भी यही दर्शन चल रहा है। नारीवाद का एक ही मतलब रह गया है, पुरुषों को लताड़ते रहना।


असल में, भारत के नारीवाद में दो गंभीर कमियाँ हैं। एक तो उसके सरोकार मध्य वर्ग तक सीमित हैं। गाँवों की और मजदूर स्त्रियों से उसकी कोई सहानुभूति दिखाई नहीं पड़ती। इससे नारीवादी विचार का प्रसार नहीं हो पा रहा है। दूसरे, भारत का नारीवाद आर्थिक प्रश्नों को उठाने से हिचकिचाता है। वह यह माँग तो करता है कि स्त्री को घरेलू श्रम का उचित पारिश्रमिक मिलना चाहिए, लेकिन इस ओर से उदासीन है कि आर्थिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें स्त्रियों की आर्थिक हैसियत पुरुषों से कमतर न हो।

मेरे खयाल से इसका मुख्य कारण है पश्चिम के नारीवाद का चरित्र मुख्यतः मध्यवर्गीय होना। पश्चिमी देशों में पूँजीपतियों को छोड़ कर लगभग सारा समाज मध्य वर्ग में आ चुका है। इसलिए उनके यहाँ का नारीवाद मध्य वर्गीय है, तो इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है। लेकिन भारत में मध्य वर्ग का आकार बहुत छोटा है। इसलिए वहाँ के प्रश्न हू-ब-हू हमारे प्रश्न नहीं हो सकते। हमें अपने प्रश्नों का आविष्कार अपनी परिस्थिति के हिसाब से करना होगा।


जैसे?

जैसे यह कि भारत के नारीवाद को यह प्रश्न उठाना चाहिए कि देश की हर स्त्री को कम से कम ये चार सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए - नल का पानी, गैस का चूल्हा, फ्रिज और कपड़ा धोने की मशीन। मध्य वर्ग की सभी स्त्रियाँ नारी मुक्ति के इन औजारों का इस्तेमाल कर रही हैं, पर आज के जमाने की ये मामूली सुविधाएँ गाँव की स्त्रियों को भी मिले, इसकी कशिश उनमें दिखाई नहीं पड़ती। वे जेंडर के बारे में ज्यादा चिंतित हैं, वर्ग और जाति के सवालों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

क्या इसे चोली-जंपरवादकहा जा सकता है? रामविलास शर्मा ने यशपाल पर यही आरोप लगाया था।

अगर तुम मजाक में ऐसा कह रहे हो, तो मैं इसका विरोध करती हूँ। अगर तुम गंभीर हो, तो मैं तुम्हारा समर्थन करती हूँ। लेकिन इसके लिए कोई बेहतर शब्द खोजना होगा।

देह-मुक्ति? आजकल इसकी बहुत चर्चा है।

यह चोली-जंपरवाद से बेहतर है। लेकिन इसका अभिप्राय बहुत सीमित है। स्त्री के लिए देह इसलिए समस्या है क्योंकि वह आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं है। स्त्री जिस दिन भौतिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएगी, उसकी देह एक बार फिर उसकी अपनी हो जाएगी।

लेकिन पैसा ही तो सब कुछ नहीं है। मैंने बहुत-सी संपन्न स्त्रियों को देखा है, जिनकी उँगलियों में हीरे की अँगूठी है, जिनका बैंक बैलेंस छह अंकों में हैं, पर जो मानसिक स्तर पर पुरुष की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाई हैं। मैं एक ऐसी स्त्री को जानता हूँ, जो विश्वविद्यालय में पढ़ाती थी, पहली तारीख को अच्छी-खासी रकम ले आती थी और उसका पति न केवल उसकी सारी कमाई गड़प जाता था, बल्कि जब-तब उस पर हाथ भी चला देता था।

नमस्तुभ्यम्, नमस्तुभ्यम्, नमस्तिभ्यम्। तुम्हीं हो माता, तुम्हीं पिता हो। प्रभु, मोहें चाकर राखो जी, चाकर रहसूँ, बाग लगासूँ, तेरी लीला गासूँ। तू चंदा, मैं चाँदनी। तू वीणा, मैं रागिनी ...


अब तुम मजाक कर रही हो।

मजाक नहीं करूँ तो क्या करूँ? स्त्री जब तक अपनी कद्र खुद नहीं करेगी, दूसरा उसकी कद्र क्यों करेगा? नए जमाने की स्त्री को सिर्फ कपड़े, गहने, डिग्री, नौकरी आदि से नहीं, विचार और मानसिकता से भी नए जमाने की स्त्री बनना पड़ेगा। तभी वह पुरुष को बाध्य कर सकेगी कि वह उसके साथ तमीज से पेश आए। आत्मसम्मान के इस बोध पर स्त्री व्यक्तित्व को खड़ा होना चाहिए, तभी वह अन्यों से सम्मान की उम्मीद कर सकती है। स्त्री को स्वाभिमानी और विनम्र होना चाहिए - पिलपिली नहीं।

वाह, आज तो मजा आ गया। ठीक ही कहा गया है, नारी को नारी ही समझ पाती है।


सुमित, एक तीसरी समस्या भी है। हमारा नारीवाद अंग्रेजी में ज्यादा है, भारतीय भाषाओं में कम। इससे नारीवाद के दर्शन में जो प्रगति हो रही है, वह एक खास वर्ग तक सीमित हो कर रह गई है।

बिलकुल। अंग्रेजी का वर्चस्व जिस तरह बढ़ रहा है, उससे न तो पुरुष मुक्ति संभव है और न स्त्री मुक्ति। लेकिन नारीवादियों के लिए भाषा का सवाल महत्वहीन है।

प्रेमचंद ने गोदान में कहा है कि पुरुष में स्त्री के गुण आ जाएँ तो वह देवता बन जाता है; स्त्री में पुरुष के गुण आ जाएँ तो वह राक्षसी हो जाती है। यह कहाँ तक ठीक है?

प्रेमचंद की मैं बहुत इज्जत करता हूँ। स्त्री के सवाल पर अपने उपन्यासों और कहानियों में उन्होंने गजब की विवेचना की है। लेकिन उनकी यह बात मुझे एकदम नहीं जँचती। वे पुरुष और स्त्री के एक बँधे-बँधाए बिंब से खेल रहे थे। सभी पुरुष शैतान नहीं होते, न ही सभी स्त्रियाँ देवी होती हैं। फिर स्त्री और पुरुष के गुण अलग-अलग क्यों हों?


अच्छा सुमित, यह बताओ कि संसद और विधान सभाओं में स्त्रियों को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है ?

मैं विधायिका में किसी प्रकार का आरक्षण देने के खिलाफ हूँ। मेरे विचार से, राजनीति सेवा का क्षेत्र है। जो जनता की सेवा करेगा, वह खुद-ब-खुद चुन लिया जाएगा। अत: संसद और विधान सभाओं में उसे आरक्षण की जरूरत नहीं है। हाँ, किसी कमजोर या पिछड़े वर्ग को विशेष सुविधा देनी हो, तो उसे सरकारी और निजी, दोनों तरह की नौकरियों में आरक्षण मिलना चाहिए। संसद और विधान सभाएँ कानून बनाने की जगहें हैं; यहाँ जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष आदि का विचार नहीं होना चाहिए।


लेकिन यह भी तो सोचो, आरक्षण के कारण ही इतने एससी, एसटी उम्मीदवार संसद में पहुँच पाते हैं। आरक्षण न होता, तो वे अपने-अपने इलाके में चप्पलें घिसते रहते।

सही है। लेकिन ये किसी न किसी पार्टी के टिकट पर निर्वाचित होते हैं। दरअसल, ये उम्मीदवार व्यक्तिगत रूप से नहीं जीतते, इनकी पार्टी जीतती है। इसलिए ये पार्टी की रीति-नीति से बँधे रहते हैं। फिर ये सांसद करते क्या हैं? तुमने इनमें से किसी को दलितों या आदिवासियों के पक्ष में आवाज उठाते देखा है? अगर ये अपनी सेवा के बल पर बिना किसी दल के समर्थन के स्वतंत्र रूप से निर्वाचित होते, तो क्या दलित या आदिवासी उत्पीड़न के सवाल पर चुप रह सकते थे?


तुम भूल रहे हो कि संसद की सदस्यता राजनीतिक ताकत से जुड़ी हुई है। इस ताकत में क्या स्त्रियों को भागीदारी नहीं मिलनी चाहिए ? इससे क्या स्त्रियों का सशक्तीकरण नहीं होगा ?

नहीं होगा, सुनंदे, नहीं होगा। इससे कुछ स्त्रियों का सशक्तीकरण होगा, पर सभी स्त्रियों का नहीं। उनकी हालत जस की तस रहेगी, जैसे आरक्षण के जरिए चुने गए दलित और आदिवासी उम्मीदवारों के सशक्तीकरण से उनके समुदायों का सशक्तीकरण नहीं हुआ। हाँ, संसदीय आरक्षण कुछ स्त्रियों के लिए फायदे का सौदा जरूर बन जाएगा।


लेकिन जब पुरुषों के लिए यह फायदे का सौदा बना हुआ है, तो स्त्रियों के लिए भी क्यों न हो ?


इस तरह देखो, तो स्त्रियों को आरक्षण जरूर मिलना चाहिए। जब राजनीति का मतलब सिर्फ लूट-खसोट रह गया है, तो स्त्रियों को भी उनका हिस्सा मिलना चाहिए। लेकिन मैडम, यह नारीवाद नहीं है, नरवाद का ही एक और चेहरा है। अचरज की बात यह है कि नारीवादी भी इस प्रस्ताव पर फिदा हैं। वे अनैतिक ताकत को खत्म नहीं करना चाहतीं, बल्कि उसमें अपना हिस्सा चाहती हैं। इससे तो वर्तमान व्यवस्था ही मजबूत होगी।


तो तुम नारीवाद के विरोधी हो ?

यह तोहमत तो मेरा दुश्मन भी नहीं लगा सकता, हालाँकि मेरा कोई दुश्मन है नहीं। मैं तो खुद को नारीवादी ही मानता हूँ।

यह क्या ? क्या पुरुष भी नारीवादी हो सकते हैं ?

क्यों नहीं हो सकते? अगर नारीवाद सिर्फ स्त्रियों का मंच नहीं है, एक विचारधारा है, तो इसे पुरुष हो या स्त्री, कोई भी अपना सकता है। मेरा तो खयाल है, जब तक पुरुष इस विचारधारा को नहीं अपनाते, तब तक नारीवाद सफल नहीं हो सकता। एक हाथ से ताली नहीं बजती।


तो आओ, अपना हाथ बढ़ाओ। हम ताली बजाते हैं।

सुमित हँस दिया। उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने उस हाथ को चूम लिया।