सुनंदा की डायरी / हिंसा / राजकिशोर
आज शाम को सुमित से मिलने गई, तो दरवाजा बंद था। उस पर गुलाबी रंग की चिट लगी हुई थी। लिखा था - एक सज्जन का व्याख्यान सुनने जा रहा हूँ। नौ बजे के आसपास लौटूँगा।
निराशा-सी हुई, पर दुख नहीं। अब मैं सुमित पर अपना कुछ-कुछ अधिकार समझने लगी थी। इसलिए आश्चर्य हुआ कि मुझे बताए बगैर वह कहाँ चला गया। मुझे बता देता, तो मैं भी उसके साथ चल पड़ती। इसे काटते हुए खयाल आया कि ऐसा सोचना मेरी भूल है। इसके पीछे स्वार्थ है। अगर वह कहीं चला भी गया, तो इस पर नाराज क्या होना ? उसे जो ठीक लगता है, वह करने का उसे पूरा अधिकार है।
होटल से बाहर निकल कर टहलने लगी। मौसम अच्छा था। ठंड थी भी और नहीं भी थी। होने-न होने के बीच का अंतराल हमेशा सुंदर नहीं होता। पर मौसम की बात अलग है। इससे जुड़ी एक और बात मेरे दिमाग में आई। कमरे की हवा से बाहर की हवा की क्वालिटी हमेशा बेहतर होती है - अगर आसपास कोई कारखाना या प्रदूषक इकाई न हो। मुसीबत यह है कि हमें बाहर से ज्यादा भीतर रहना होता है। क्या हम सबका व्यक्तित्व इसीलिए बंद-बंद-सा होता है? आदिवासी, किसान और मजदूर ज्यादातर खुले में रहते हैं, इसीलिए उनका दिल कुछ बड़ा होता है?
इसी तरह की बातें सोचते हुए मैं सड़क पर चहलकदमी कर रही थी। तभी पीठ पर धौल-सी पड़ी। मैंने मुड़ कर देखा - सुमित था। मन को तसल्ली मिली। मैं गुनगुनाने लगी - तेरी मर जाए साजनिया, तू कहाँ गया था...
सुमित ने जवाबी गाना गुनगुनाना शुरू किया, मेरा तो जो भी कदम है, वो तेरी राह में है...
मेरा मन खिल उठा। उदासी के बादल छँट गए।
सुमित और हम डाइनिंग रूम में दाखिल हुए। उसने कहा, मैं खा कर आया हूँ। तुम्हारा साथ देने के लिए चला आया।
खाना मेज पर लग गया, तो सुमित हँसने लगा। बोला, तुमने पूछा नहीं कि मैं कहाँ गया था?
मैंने रूठने का अभिनय करते हुए कहा, पता है। किसी का व्याख्यान सुनने गए थे। मुझमें इतनी योग्यता कहाँ कि मैं विद्वानों की बातें समझ सकूँ। इसलिए अकेले चले गए थे।
सुमित मुसकराया - ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से। अब यह तो पूछो कि व्याख्यान किसका था, किस विषय पर था।
मैंने कहा - समझो पूछ लिया।
सुमित ने कहा - एक विदेशी प्रोफेसर था। उसे हिंसा पर बोलना था। शाम को अचानक याद आया। देर हो चुकी थी। इसलिए जैसे था, वैसे ही उठ कर भगा। तुम्हें खबर तक नहीं कर सका।
मैंने जानना चाहा - प्रोफेसर साहब ने क्या कहा?
सुमित ने बताया - बहुत बड़े विद्वान हैं, इसलिए उनकी एक भी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी। हाँ, भाषण के बाद जो डिनर हुआ, उसका एक दृश्य मैं कभी भूल न सकूँगा। प्रोफेसर साहब मुर्गे की टाँग का स्वाद ले रहे थे और उन्हें घेर कर खड़े लोगों से बोल रहे थे - इफ़ वॉयलेंस इज़ अलाउड टू गो ऑन, नॉन ऑफ़ अस इज़ सेफ। (अगर हिंसा को राका नहीं गया, तो हममें से कोई सुरक्षित नहीं है।)
मुझे बड़े जोर की हँसी आई। गनीमत थी कि उस समय मेरे मुँह में कुछ था नहीं। वरना मेज गंदी हो जाती। आसपास के लोग हमारी ओर देखने लगे। मैंने गिलास उठा कर पानी के घूँट लिए और कहा - दुनिया ऐसे ही चल रही है। भुना हुआ मुर्गा कुछ बोल नहीं सकता था। बोल सकता, तो यही कहता - ठीक कहते हो, प्रोफेसर। इफ़ वॉयलेंस इज़ अलाउड टू गो ऑन, नॉन ऑफ़ अस इज़ सेफ।
खाना खत्म कर मैंने सुमित से कहा - चलो, टहलते-टहलते बात करते हैं।
हवा में ठंडक घुलने लग गई थी।
लेकिन मांसाहारियों का मजाक उड़ाने का हमें क्या हक है ? आखिर यह दुनिया की एक बड़ी आबादी का भोजन है।
मैं मजाक कहाँ उड़ा रहा हूँ! मुझे तो इस विडंबना पर हँसी आ रही है कि एक ओर प्रोफेसर साहब हिंसा के विरुद्ध बोल रहे थे और दूसरी ओर मुर्गे की मिमियाहट उन्हें सुनाई नहीं पड़ रही थी। मेरा सोचना यह है कि जो मुर्गे का मांस खा सकता है, वह आदमी का भी मांस खा सकता है।
सुमित, इतनी कड़ी बात मत कहो। बहुत-से मांसाहारी ऐसे हैं जिन्हें करुणा की मूर्ति कहा जा सकता है।
जरूर होंगे। पर भेड़, बकरे या मुर्गे के साथ जो प्रत्यक्ष हिंसा होती है, वह उन्हें दिखाई क्यों नहीं पड़ती? इसका मतलब यह है कि वे हिंसा की किसी बनी-बनाई परिभाषा से बँधे हुए हैं।
लोग यह भी कहते हैं कि हम पशु-पक्षियों को खाना छोड़ देंगे, तो उनकी इतनी बहुतायत हो जाएगी कि आदमियों के लिए जमीन पर पैर रखने की जगह खोज पाना मुश्किल हो जाएगा।
मैं डिसकवरी चैनल नहीं देखता। इसलिए इस बारे में कुछ बोल नहीं सकता। फिर भी यह बात सही नहीं लगती। जिन जीवों को हम नहीं खाते, उनकी जनसंख्या क्या अनुपात से बाहर हो गई है?
लेकिन ऐसे इलाके भी तो हैं जहाँ वनस्पतियाँ नहीं उगतीं। वहाँ के लोग क्या खाएँगे ?
उनके लिए मजबूरी है। यह भी हो सकता है कि उनमें यह चेतना पैदा हो जाए कि अपनी जान बचाने के लिए दूसरों की जान लेना उचित नहीं है, तो वे ऐसे इलाकों में चले जाएँ जहाँ मांसाहार की जरूरत नहीं पड़ती। सुनंदा, आदमी चाहे तो विकल्प मिल ही जाते हैं। असली सवाल चाहने का है।
लेकिन क्या शाकाहार में हिंसा नहीं है ?
जरूर है। पर यह न्यूनतम हिंसा है, जिसके बिना हमारे लिए जीवन धारणा करना असंभव हो जाएगा। इसलिए जिसे जीना है, वह इतनी हिंसा करने के लिए मजबूर है। बताते हैं कि पानी पीने में भी हिंसा है, क्योंकि पानी के साथ असंख्य कीटाणु हमारे पेट में जाते हैं। इसीलिए जैन साधु कच्चा पानी नहीं पीते। लेकिन वे जीव हिंसा को प्रोत्साहित तो करते ही हैं। गृहस्थों से अपेक्षा की जाती है कि वे उबाल कर ठंडा किया हुआ पानी घर में रखेंगे, ताकि साधु भिक्षा माँगने आएँ, तो उन्हें निष्कीटित जल मिल सके। यह गृहस्थों के साथ मजाक नहीं तो क्या है
यह तो खुद हिंसा न कर उसकी जिम्मेदारी दूसरों पर लाद देने की बात हुई। ऐसे उपायों से हिंसा रुकती नहीं है, सिर्फ स्थानांतरित हो जाती है। हिंसा की मात्रा में तो कोई कमी नहीं आई। उसका देश-काल-पात्र जरूर बदल गया।
इसीलिए मुझे लगता है कि वास्तव में हिंसा न करने के बजाय हिंसा न करने का पाखंड ज्यादा है। जीने के लिए जितनी हिंसा जरूरी है, उसकी जिम्मेदारी हममें से हर एक को लेनी होगी। तब शायद हिंसा में कुछ कमी आ जाए।
मतलब ?
मतलब समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। प्रोफेसर साहब सूअर का मांस भी खाते होंगे। पश्चिमी देशों में यह आम बात है। ऐसे व्यक्तियों से कहा जाए कि अब बाजार में सूअर का कटा-कटाया मांस नहीं मिलेगा - जिसको खाना है, वह खुद सूअर को मारे और उसका मांस रौंध कर खाए, तो कितने लोग सूअर का मांस खाएँगे? यही बात मटन, चिकन सभी के बारे में कही जा सकती है। हत्या करने को व्यावसायिक रूप दे दिया गया है, ताकि कुछ लोग छुरा चलाते रहें और बाकी लोग स्वाद लेते रहें। यह एक निष्ठुर श्रम विभाजन है। सभ्य देश कम से कम इस क्रूर विभाजन को तो खत्म कर ही सकते हैं। मेरा दावा है, इससे मांसाहार में कम से कम पचास प्रतिशत कमी आ जाएगी। हो सकता है, और ज्यादा।
तुम ठीक कह रहे हो। मांसाहार की शुरुआत तब हुई होगी जब इसका कोई विकल्प नहीं था। मानव चेतना का विकास भी नहीं हुआ था। अब जब कि हम चीजों को समझने लगे हैं और हमारे पास विकल्प भी हैं, तब पुरानी चीजों को चलाते रहने में कौन-सी बुद्धिमानी है, यह मेरी समझ में नहीं आता।
लेकिन हम जिस चीज की चर्चा कर रहे हैं, वह स्थूल किस्म की हिंसा है। वास्तव में हिंसा के सूक्ष्म प्रकार इससे भी ज्यादा व्यापक हैं।
जैसे ?
जैसे गरीबी, जैसे विषमता, जैसे जाति प्रथा, जैसे नस्लवाद, जैसे मर्दवाद...
गरीबी भी हिंसा है?
है। अगर पूरा समाज गरीब है, तो इसमें कोई हिंसा नहीं है। यह एक प्राकृतिक अवस्था है। पर वहाँ हिंसा है, जहाँ आबादी के एक हिस्से को गरीब रखा जाता है, ताकि दूसरा हिस्सा अमीरी में जी सके। पृथ्वी सभी की है। इसके संसाधनों पर सभी का समान हक है। जब कुछ लोग इन संसाधनों पर अपने हिस्से से ज्यादा कब्जा कर लेते हैं, तो वे बाकी लोगों के साथ हिंसा करते हैं।
फिर तो पूरी सभ्यता में ही हिंसा बिखरी पड़ी है।
जरूर बिखरी पड़ी है। तभी तो एक विचारक का कहना है कि सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है।
मैंने कहीं पढ़ा है कि आक्रामकता मनुष्य के मूल स्वभाव में है। इसलिए इससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। इसे नियंत्रित जरूर किया जा सकता है - शायद यह भी नहीं, क्योंकि नियंत्रित करने से आक्रामकता हमारे भीतरी मन में चली जाती है और तरह-तरह से अभिव्यक्त होती रहती है।
यह फ्रायड का विचार है। उसे मानव मन की गहरी समझ थी। उसका नाम सेक्स के साथ फिजूल ही जोड़ दिया गया है। वास्तव में वह सभ्यता समीक्षक था। और, अभी तक तो उसकी समीक्षा ही सही साबित हुई है। लोग स्थूल और बारीक, दोनों तरीकों से एक-दूसरे को मारते और मरते हैं, क्योंकि हमें अहिंसक जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। हमारे भीतर से वह आदिम मनुष्य तिरोहित नहीं हुआ है, जो जंगलों में रहता था। तब आक्रामकता के बगैर जिंदा रह पाना मुश्किल था। प्रकृति की व्यवस्था में चारों तरफ हिंसा और आक्रामकता थी। मनुष्य भी इसी व्यवस्था का अंग था। लंबे समय के बाद जब सामाजिक जीवन शुरू हुआ, तब ऐसा समाज बना जो मनुष्य के स्वाभाविक आवेगों को कुंठित करता था। दूसरी ओर, मार्क्स के अनुसार, वह वर्ग समाज भी था, जिसमें एक समूह के स्वार्थ दूसरे समूह से टकराते थे। इन दोनों कारणों से मनुष्य की आक्रामकता यानी हिंसक प्रवृत्ति कमजोर नहीं हो पाई। जहाँ उसे खुल कर खेलने का मौका नहीं मिला, वह मन की गहराई में चली गई और तरह-तरह के खेल दिखाने लगी। यह संक्रामक बीमारी अभी तक कायम है।
तो हिंसा का कभी अंत नहीं होने वाला है ?
मैं इतनी कड़वी भविष्यवाणी नहीं करना चाहता। इतना जरूर लगता है कि हिंसा की समस्या के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। इसमें यह उम्मीद भी निहित है कि हिंसा के बहुत-से रूप आज नहीं तो शायद कल खत्म हो जाएँ। लेकिन जीवन की बनावट ही कुछ ऐसी है कि हिंसा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता।
क्या यह समस्या इतनी गंभीर है ?
दरअसल, लोग हिंसा का सिर्फ नकारात्मक रूप देखते हैं और उसी पर बल देते हैं। नकारात्मक रूप यह है कि किसी को दुख मत दो। मेरा खयाल है, सिर्फ इस आधार पर हिंसा की आदत या परंपरा को खत्म नहीं किया जा सकता। हिंसा का विकल्प है, दूसरों से प्रेम करो, दूसरों को सुख दो। यह बड़ा कठिन काम है। प्रेम के बारे में हम बातचीत कर चुके हैं कि यह एक लगभग असंभव काम है। इसलिए अहिंसा के प्रति बहुत लगाव होने के बावजूद मुझे इसकी संपूर्ण सफलता में संदेह है। इसके बारे में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि खिलेगा तो देखेंगे।
पर यह तो हमारी जिम्मेदारी बनती ही है कि इसके खिलने में हम उतनी मदद जरूर से करें जितनी कर सकते हैं।
क्यों नहीं? क्यों नहीं? नहीं तो हम जानवर ही बने रहेंगे।
सुमित, तुम भूल रहे हो कि जानवर अनावश्यक हिंसा नहीं करते।
सॉरी। पर यह इसलिए है कि वे सभ्य नहीं हैं।
हम दोनों ठठा कर हँसने लगे।
सुमित ने बोतल निकाल ली। मेज से दो गिलास उठाए, तो मैंने सिर हिला दिया - चीज है तो मजेदार, पर अभी नहीं। डरती हूँ कि कहीं आदत न पड़ जाए।
सुमित अपनी गिलास भरते हुए बोला - जीना भी एक आदत ही है।