सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 11 / जीतेन्द्र वर्मा

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शहर का चौराहा। ढलती शाम। युवकों की टोली, पर आज फिजा कुछ बदली-बदली नजर आ रही है। युवकों के बीच हँसी के फव्वारे कम और आक्रोश के स्वर अधकि फूट रहे हैं। कुछ युवकों के हाथ में रंग-बिरंगे पंपलेट है।

“बड़ी सच्ची-सच्ची बात लिखी है। इस पंपलेट में। अब तक हमारा ध्यान ही इस ओर नहीं गया था।”

-एक युवक विस्मय के साथ कह रहा है।

“अगर यही स्थिति रही तो कुछ दिनों में हिंदुओं का अस्तित्व ही मिट जाएगा।”

“हिंदू बड़े उदारवादी होते हैं। मुसलमान हमारे उदारता का नाजायज फायदा उठा रहे हैं।”

“हिंदुओं में एकता ही नहीं है। अब उन्हें बैकवर्ड-फारवर्ड के आधार पर लड़ाया जा रहा है।”

“मुसलमानों, अंग्रेजों ने तो हिंदू धर्म को खत्म करने का खूब प्रयास किया पर ईश्वर की कृपा से हिंदू धर्म का कुछ नहीं बिगड़ा।”

“मुसलामनों ने तो कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बना दिया।”

“हम लोगों को सभा में जरूर चलना चाहिए।”

“कौन सी सभा ? ”

“कौन सी सभा ! अरे पंपलेट इसी उद्देश्य से निकला है कि मंगलवार को होने वाली हिंदुत्व जागरण सभा में लोग भारी संख्या में भाग लें। ”

“अरे यह पूरा पंपलेट पढ़ता तब तो जानता।”

“यही तो हिंदुओं के पतन का मूल है कि धर्म के करम में मन ही नहीं लगाते।”

“यही स्थिति रही तो फिर हो गया हिंदुत्व का कल्याण।”

“अब बस भी करो यार! मैं अपने सारे मुहल्ले वालों को लेकर आऊँगा।”

“तब तो ठीक है।”

“मैं भी ऐसा ही करूँगा।”

“मैं भी।”

“मैं भी।”

“मैं..."