सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 12 / जीतेन्द्र वर्मा

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चौराहे पर दूसरा ग्रुप है। वैसे ग्रुपबाजी तो रोज होती है। मुहल्ला, उम्र, रुचि, कॉलेज आदि के आधार पर। आज दो ही ग्रुप है, हिंदू और मुसलमान। यह ग्रुप भी आक्रोश में है। इनके पास भी पंपलेट पहुँच चुका है।

“यह सब हमलोगों को हिंदुस्तान से भगाने की साजिश है।”

“इतना आसान नहीं है।”

“क्या कर लोगो तुम? जरा मैं भी सुनूँ। उनकी संख्या बहुत अधिक है।”

“अरे छोड़ो भी। सौ भेड़ों पर एक सिंह शासन करता है।”

“अरे वाह! तो तुम शेर हो।”

“शेर है क्यों नहीं। हमारे पूर्वजों ने उनके ऊनपर सदियों तक शासन किया है।”

“ये तो अपनी बेटी-बहनों को हमारे पूर्वजों के यहाँ पहुँचाते थे।”

“मैंने सुना है कि वे हिंदुत्त्व जागरण सभा के बहाने भीड़ जुटाकर मुसलमानों का कत्लेआम करेंगे।”

“यह तो बड़ी खतरनाक बात है। पर हमने तो अपने रक्षा के लिए कुछ किया ही नहीं है।”

“तुम लोग न जाने किस दुनिया में रहते हो। इस्लाम के काम में तो तुम लोगों का ध्यान ही नहीं रहता। करीम चाचा के यहाँ परसो मीटिंग हुई थी। उसमें हिंदुत्त्व जागरण सभा से निपटने की योजना बनी है। सबको कुछ-न-कुछ जिम्मेवारी मिली हैं तुम लोग भी कुछ जिम्मेवारी ले लो।” “मैं अभी करीम चाचा के पास जाता हूँ।”

“ मैं भी चलता हूँ । ”

“ मैं भी । ”

“ मैं भी। ”

“मैं.............”