सुबह की लाली / खंड 1 / भाग 9 / जीतेन्द्र वर्मा

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महौल बेहद तनाव से भरा है। बटुकेश्वर दीक्षित यानि गुरु जी किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। बाकी छः व्यक्ति अपने-अपने तरीके से उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं।

“मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप लोग इन छोटी जातियों को क्यों इतना सिर पर चढ़ा रहे है। शिलान्यास करना है तो यही करेंगे, ऊँचे-ऊँचे पदों पर बैठना है तो यही बैठेंगे। अब सभा की अध्यक्षता करनी है तो ये ही करेंगे। इनको आगे बढ़ाकर आप लोग क्यों हिंदूद्रोही की तरह वर्ण-व्यवस्था का नाश करना चाहते हैं?”

-उत्तेजित स्वर में गुरू जी ने कहा।

“ऐसा करना हमारी मजबूरी बन गई है।”

-प्रो0 रवींद्र कुमार पांडेय का वाक्य अभी ठीक से पूरी भी नहीं हुई कि गुरू जी फिर भड़क उठे-

“जब हिंदुत्त्व की जड़ ही कट जाएगी तो यह सब करने से क्या फायदा?”

असल बात यह है कि संस्था के नेतृत्व ने तय किया है कि हिंदुत्त्व की लड़ाई में दलित -पिछड़ों को आगे रखा जाए। इसी निर्णय के तहत शहर में होने वाली हिंदुत्त्व जागरण सभा की अध्यक्षता किसी दलित से कराने की बात आई। इस पर गुरू जी ने अपना संतुलन खो दिया है। संस्था इन्हें नाराज नहीं करना चाहती। वे संस्था से शुरुआती दिनों से जुड़े हैं जब संस्था को कोई पूछता नहीं था।

“आपका कहना बिल्कुल सही है। हम सभी इस योजना के प्रति सहमत नहीं है। सिर्फ परिस्थितियों के दबाव में ऐसा दिखावा कर रहे हैं।”

-संयत स्वर में प्रो0 पांडेय ने कहा।

“दिखावा क्यों?”

-गुरू जी ने स्कूली मास्टर के लहजे में पूछा।

“वह इसलिए गुरु जी, क्योंकि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो सारी दलित-पिछड़ी जातियाँ हमारे खिलाफ खड़ी हो जाएगी और हम टॉय-टॉय फिस्स हो जाएंगे।”

-चिड़े हुए आवाज में रघुनंदन शाही ने कहा।

गुरुजी शाही के मनोभावों को समझ गए। गुस्से में कहा-

“आपके कहने से कुछ नहीं हो पाएगा। क्या हमें अपने त्याग-तपस्या पर भरोसा नहीं है।”

“वह सब तो ठीक है गुरू जी।”

-शाही कुछ कहते उसके पहले प्रो0 पांडेय बोल उठे। उन्होंने शाही को आँख तरेर कर चुप रहने का इशारा किया तथा गुरू जी को समझाना शुरू किया-

“परंतु हमारी कुछ मजबूरियाँ हैं। हम जो करना चाहते हैं कि वह अगर सीधे-सीधे कहे या करें तो सारी दलित-पिछड़ी जातियाँ हमसे कट जाएगी। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से वे अपना भला-बुरा समझने लगी। हैं। उन्होंने राजनैतिक पार्टी बना ली है। अगर इस समय हमने उन्हें नहीं जोड़ा तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।”

“कहीं ऐसा नहीं हो कि हम अपने असली लक्ष्य से भटक जाए?”

-गुरू जी ने शंका प्रकट की।

“आप विश्वास कीजिए ऐसा नहीं होगा।”

“कैसे नहीं होगा?”

-गुरू जी ने अपने पुराने तेवर कहा। प्रो0 पांडेय समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें कैसे संतुष्ट किया जाये। उनकी स्थिति भाँप कर केंद्रीय पर्यवेक्षक ने मोर्चा संभाला-

“इधर दलित-पिछड़ों में अपने अधिकारों के प्रति काफी जागरूकता आ गई है। वे ऊँची जातियों का वर्चस्व स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। उन पर अंबेडकर के विचारों का व्यापक असर है। जब वे हमारे प्रभाव में आ जाएंगे तब हम अपने असली रूप में आ जाएंगे।”

“इसका क्या सबूत है?”

पर्यवेक्षक मानो इस सवाल का जवाब देने के लिए तैयार ही बैठे थे। उन्होंने ओठ को दाँत से दबाकर मुस्कुराहट रोकते हुए कहा-

“साबूत तो कोई खास नहीं है। वैसे आपाके याद होगा कि जब मंडल कमीशन लागू हुआ तो आरक्षण समर्थक आंदोलन के बहाने पिछड़ी जातियाँ एकजुट होने लगी थी। हमने सीधे-सीधे इसका विरोध करने के बजाय मंदिर का मुद्दा उठाया और मंडल से उपजी चेतना को कमंडल में डूबा दिया। हाँ बिहार तथा कुछ और जगहों पर हमें तत्कालिक असफलता जरूरी मिली, पर हम हिम्मत नहीं हारे हैं। कुछ अंबेडकरवादियों को छोड़कर आज तक कोई हमारी चाल को नहीं समझ पाया।”

गुरू जी थोड़ा नरम हुए। लंबी साँस लेने के बाद कहा-

“इन साले अंबेडकरवादियों का कोई उपाय करना जरूरी है "

“हम इसके लिए भरपूर प्रयास कर रहे हैं।”

“क्या कर रहे हैं? मुझे तो कोई जानकारी ही नहीं है।”

-गुरु जी। शाही ने मुँह बिचकाया जिसे कमजोर नजर के कारण वे देख नहीं पाए।

“हम अंबेडकर की खूब पूजा-अर्चना कर रहे हैं। उसकी जयंती मनाने, मूर्ति बनाने, हर बात में अंबेडकर के नाम की माला फेरने आदि कार्यों में हम सबसे आगे रहते हैं।”

केंद्रीय पर्यवेक्षक के बात पर गुरु जी एक बार फिर भड़क उठे-

“ऐसा करने से तो उस हिंदूद्रोही अंबेडकर का मान और बढ़ेगा। आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं।”

शाही ने धीरे से कहा-

“वह तो आप पहले से ही हैं। उसमें बनाना क्या है!”

गुरु जी की आँखें भले कमजोर हो गई है, पर कान अभी बिल्कुल ठीक है। उन्हें शाही का वाक्य सुनाई पड़ गया। उन्होंने क्रोध से पूछा-

“आपने मुझे कुछ कहा शाही जी?”

“आपको नहीं, मैंने तो कहा कि ये लोग आपको मूर्ख बना रहे हैं।”

शाही ने पूरे नाटकीयता तथा चिढ़ाने के मूड में कहा। वे उनके बहस करने के आदत से परेशान रहते हैं।

“आप कभी संस्कार नहीं सीख पाएंगे। आपके कारण संस्था की कितनी बदनामी होती है।” उपाय करना जरूरी है।”

-अब गुरु जी भी लड़ाई के मूड में आ गये। ‘संस्था की बदनामी’ से उनका आशय शाही के किशोरवय के लड़कों के साथ मधुर संबंध होने के आरोप से है। शाही उनका आशय खूब समझ रहे हैं पर वे विचलित नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि जो पर्यवेक्षक आए हैं उनके उनपर भी ऐसे आरोप लगते हैं। वे आज गुरू जी को हुट करने के मूड में हैं-

“यह सब तो आप जैसे गुरूजनों का मार्ग दिखाया हुआ है।”

स्थिति बिगड़ती देख प्रो0 पांडेय ने हस्तक्षेप किया। पहले उन्होंने शाही को डाँटकर चुप कराया फिर गुरु जी से माफी माँगी। शाही को कमरे से बाहर जाने का इशारा किया। शाही तरह-तरह के मुँह बनाते हुए बाहर चले गए।

“आप उनके बातों को गंभीरता से नहीं लीजिए।”

-प्रो0 पांडेय।

“मुझे शाही के रंग-ढंग अच्छे नहीं लगते।”

-गुरू जी।

शाही की ढेरो आलोचना तथा अपनी खुशामद के बाद उनका पारा उतरा। फिर मुद्दे की बात चली। पर्यवेक्षक ने कहना शुरू किया-

“देखिए गुरू जी, अंबेडकर जयंती मनाना, मूर्ति बनवाना, हर बात में अंबेडकर की दुहाई देना आदि कार्य तो सिर्फ दलितों को भ्रम में डालने के लिए है। ताकि हम पर से दलित विरोधी होने का ठप्पा मिट जाए। ठीक उसी तरह जैसे ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाले गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर उनके अनुयायियों को हमने कभी भ्रमित कर दिया था। आज बौद्ध धर्म को भी हिंदू धर्म ही समझा जा रहा है।”

अब बात गुरू जी के समझ में आई। उनका मन प्रफुलित हो उठा |इस तरह की और बातें होती रही।