सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 7 / जीतेन्द्र वर्मा

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एक भीड़ एकराम के अब्बू को बेतहाशा गालियाँ दे रही थी। रह-रह कर लप्पड़-झप्पड़ गिर रहे थे।

“पहले ही से मुझे शक था इस हरामी पर। कभी इस्लाम के काम में इसका मन ही नहीं लगता था।”

“कितनी बार इसे समझाया कि नमाज पढ़ा करो।”

“ पर मैं पाँचों वक्त नमाज पढ़ता हूँ। ”

-प्रतिवाद किया एकराम के अब्बू ने। अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तीन जने पूरी ताकत से लप्पड़-झप्पड़ बरसाने लगे। जमीन पर गिर पड़े एकराम के अब्बू। पुरानी गंजी फट गई, लुंगी खुलने को आई।

“साले! तुम्हें नहीं! तुम्हारे सपूत को कह रहे हैं।”

“मदरसा में नहीं पढ़ाएगे! अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएंगे!”

“बड़ा डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का सपना देखते थे। पोत दिया न पूरी बिरादरी के चेहरे पर कालिख!”

“कुछ भी कहो तो क्या इसका लछन मुझे शुरू से अच्छे नहीं लगते थे।

‘‘शुरू से ही इसका काफिरों के साथ उठना बैठना रहता था।”

“यह सब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का नतीजा है।”

“डाक्टर रहमत के बच्चे भी तो अंग्रेजी स्कूल में.................”

-एकराम के अब्बू ने फिर हिम्मत की थी।

“साला! हरामी!! जबान लड़ाता है.................”

फिर लप्पड़ की बरसात होने लगी। इस बार कुछ लड़के रस्सी और रड लाने गए। साला इस तरह नहीं मानेगा!

“अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने अथवा डॉक्टर इंजीनियर बनने का सपना देखने की बात नहीं है। बात है। इस्लाम छोड़ने की!”

-डाक्टर रहमतने बात बदलने की कोशिश की।

“मदरसे में पढ़ कर लोग डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बनते हैं। तुम्हारा बेटा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ कर कौन साहब बन गया। मदरसा में पढ़ता तो इस्लाम की बात जानता। ऐसी गलती नहीं करता।”

एकराम के अब्बू रोने लगे। उनके पीटने से नहीं बल्कि एकराम के साहब नहीं बन पाने पर। कितना रोया था वह जब एकराम पहले दिन दुकान पर बैठा था। वह मना करता था। सभी हँसते। इंजीनियर साहेब वाली दुकान कहकर जले पर नमक छिड़कते।

रात में खाना खाते समय बीबी ने बताया कि एकराम दुकान पर बैठना चाहता है। रूक गए थे उसके हाथ-

“क्यों?”

“क्यों क्या? दिन भर मारा-मारा फिरता है। दुकान पर रहेगा तो कुछ काम भी सीखेगा। तुम्हारी मदद भी हो जाएगी।”

“पर पढ़ाई-वढ़ाई।”

मुँह का कौर मुँह में ही रह गया था। बीबी कुछ नहीं बोली। रात भर उसे नींद नहीं आई। सबके कहने के बाद भी उसने अपन बेटे को मदरसे में नहीं भेजा। उसने एक अंग्रेजी स्कूल में बेटे का नाम लिखवाया। उसे तरह-तरह की बातें सुननी पड़ी।

“मदरसे में खाने को भी मिलता है।”

“और फीस भी नहीं लगती।”

“मजहब के अनुसार मदरसे में ही पढ़ाना चाहिए।”

“पर बड़े लोग अपेन बेटों को मदरसे में क्यों नहीं पढ़ाते।”

-हिम्मत बटोर कर एकराम के अब्बू ने पूछा था।

“बड़ों की देखती नहीं करनी चाहिए।”

-जबाब आया था पर वह नहीं माना। वह देखता कि धनी मुसलमान अपने बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते और गरीब मुसलमानों को मदरसे में पढ़ने के लिए कहते हैं। उसके बेटे का अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना किसी को अच्छा नहीं लगता। तरह-तरह के ताने मारते थे परिचित-

“अब बड़ा आदमी हो गया है। ”

“हो भी क्यों नहीं ! ! बेटा जो कलक्टर हो गया है।”

-हँसी दबा कर दूसरा कहता। पर सबकी हँसी उस समय उड़ गई जब एकराम मैट्रिक में पंचानवे परसेंट नंबर से पास कर गया और डा0 रहमत का बेटा साठ प्रतिशत नंबर यानी खींच खाँच कर फर्स्ट डिवीजन। डा0 रहमत कह रहे थे मिजाज ही खराब था नहीं तो नब्बे परसेंट से कम का कहाँ सवाल था! और फिर इस परसेंटेज - फरसेंटेज से कुछ नहीं होता है!

और सचमुच कुछ नहीं हुआ। आई-ए0सी0 में भी एकराम का अधिक नंबर आया पर इंजीनियरिंग में एडमीशन हुआ डाक्टर रहमत के बेटे का। इंजीनियरिंग के प्रवेश परीक्षा में भी एकराम का रैंक ऊपर था पर फीस की रकम सुनते ही होश उड़ गए एकराम के अब्बू के। बाप रे बाप कुल दस लाख। पहले तो विश्वास नहीं हुआ। कई पढे़-लिखों से पूछा तो एकराम की बात सही निकली।

“कुछ कम बेस नहीं होता क्या?”

“नहीं, अधिक-से-अधिक किश्त में देने की सुविधा है।”

“यह कौन पढ़ाई पढ़ी तुमने कि पढ़ने के बाद भी इतनी रकम! ........कहीं घूस तो नहीं माँग रहे हो! हम लोगों के समय तो इतना फीस नहीं था।”

चुप रह गया एकराम। किसी से नहीं कहेगा अब्बू की बात। जो सुनेगा हँसेगा।

किसके-किसके यहाँ नहीं दौड़े एकराम के अब्बू। मुसलमानों की एकता के लिए बराबर मीटिंग हुआ करती थी। उसने अपना दुःख वहाँ कहने की कोशिश की। आखिर वे सुख-दुःख बाँटने की दुहाई देते थे पर उसकी बात किसी को अच्छी नहीं लगी।

एक ने कड़े स्वर में कहा-

“यह निहायत व्यक्तिगत मामला है। हम इस्लाम की बात करने के लिए इकट्ठा हुए हैं।”

“इस तरह की समस्याएँ तो सबकी है।”

उधर डॉक्टर रहमत तैयार बैठे थे। कौन मनीपाल कि सनीपाल में बीस लाख डोयनेशन देकर अपने बेटे का एडमीशन करा दिया। कह रहे थे कि पहले ही दिन क्लास में लैपटॉप लेकर जाना है। नहीं तो क्लास में घूसने ही नहीं देगा। जैसे यहाँ बिना कॉपी-किताब के क्लास में नहीं घूसने दिया जाता है। इस लैपटॉप को खरीदने में भी पैंतीस हजार लग गए। यह कम दाम वाला है। अधिक दाम वाला तो सत्तर हजार का है। डॉक्टर रहमत अपनी बात ऐसे आदमी से कहते जिसके माध्यम से घूम फिर कर बात एकराम के घर तक पहुँचे। एक बार फिर एकराम का घर फुटबाल बन गया था जिसे फुर्सत मिलती ही किक मारता-

“बैंक से लोन ले लो। अब तो यह भी सुविधा है।”

“अरे सरकार ने पढ़ने वालों के लिए बड़ी सुविधा दी है।”

“पर बैंक वाले लोन तभी देते हैं जब पढ़ाई के बाद नौकरी निश्चित हो।”

“डॉक्टर रहमत ने भी तो लोन लेकर ही भेजा हैं”

“एकराम का रैंक तो ऊपर था न! फिर लोन क्यों नहीं मिल रहा है।”

किसी ने अपने जानते कुछ बाकी नहीं छोड़ा। एकराम अपने अब्बू को लेकर सभी बैंकों में कई-कई बार गया था। बड़ी आरजू-मिन्नत की थी। बैंकवालों का कहना था कि फर्स्ट इयर में वे लोन नहीं देते। इस साल अगर लोन लेना है तो कुछ गिरवी रखना होगा।

एस्बेस्टर से छाया हुआ दो कमरों वाल घर के सिवा कुछ नहीं था उसके पास। बैंकवाले कभी फिक्स डिपोजिस्ट माँगते तो कभी नौकरीवालों की गारंटी। डॉकटर रहमत ने फिक्स डिपोजिस्ट गिरवी रखकर लोन लिया था। यह बैंकवाले ने ही बताया।

उसे डॉक्टर रहमत की बात सही लगी अधिक नंबर लाने से कुछ नहीं होता!

रात में उसे नींद नहीं आ रही थी। वह चुपचाप इमली के पेड़ की ओर चला। सभी खा पीकर सो गए थे। पेड़ के पास इस समय कोई नहीं होगा। वह वहीं बैठक कर आज रो लेगा। घर में आँखे भींगने पर भी एकराम की अम्मी सवालों की बौछार कर देती है। नहीं बताने पर रोने लगती। इमली के पेड़ के चबूतरे के पास पहुँचने उसे लगा कि कोई रूलाई की हिचकी रोक रहा है। वह एकराम था। न जाने कब से रो रहा था। वह दबे पाँव घर लौट आया। आकर सीधे बिस्तर पर लेट गया। आधे घंटे बाद एकराम आया। उसने अपनी आवाज भरसक अन्य दिनों की तरह कड़क बना कर पूछा-

“कहाँ थे इस समय तक ? यही घर आने का समय है।”

एकराम ने भी अपनी आवाज अन्य दिनों की तरह कर बोला-

“एक दोस्त के यहाँ खाने गया था।”

समुद्र की लहर उठी उसके सीने में। अब एकराम की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती। पाम्हीं पूरी तरह आ गई थी। उमर सत्रह की थी। कितना सुंदर लगता है। जिस दिन रिजल्ट आया कितना खुश था। आँखों में कितनी चमक थी। वह एकराम को कोर्ट-पैंट-टाई में देख रहा था। अब कैसा सूख गया है।

“साले! अब रो रहे हो। अब पछताने से कुछ नहीं होगा।”

उसके बाल पकड़ कर झूलाते हुए एक सज्जन ने जोरदार थप्पड़ जमाकर कहा। वह रो रहा था। सिसकी पर सिसकी चढ़ रही थी। सब समझ रहे थे कि वह पश्चाताप से रो रहा है। अबकी थप्पड़ मारने वाले सज्जन को उसने ध्यान से देखा। यही वे सज्जन हैं जो प्रस्ताव लेकर आये थे कि एकराम का निकाह उसकी बेटी से कर दो तो वह पढ़ाई में मदद करेगा। लड़की पढ़ी-लिखी नहीं थी। उसे मन तो नहीं था पर एकराम के मन की टोह ली। वह तो देह पर हाथ रखने देने के लिए तैयार नहीं था। शादी की बात सुनकर भड़क उठा। उसने इंकार कर दिया।

"यह रोने-धोने का नाटक बंद करो और बताओ एकराम कहाँ है?” “मुझे नहीं मालूम।”

फिर तड़ातड़ लप्पड़-थप्पड़ पड़ने लगे। रड लाये लड़के ने जोरदार रड उसके पीठ पर जमाया। बाप-बाप कर वह जमीन पर लोटने लगा। भीड़ ने रड मारने वाले लड़के की तरफ प्रशंसात्मक नजर से देखा।

“क्यों जान देने पर तुले हो। एकराम को बुलाकर इस्लामी रीति से निकाह करा दो। बात खत्म हो जाएगी।”

- एक ने मीठे स्वर में कहा।

“यही तो हम उस दिन से कह रहे हैं।”

“हिंदू की लड़की से शादी करने में कोई बुराई नहीं है पर उसे मुस्लिम तो बनना पड़ेगा।”

सभी अपने-अपने तरीके बता रहे हैं।

सुस्ता-सुस्ता कर लोग एकराम के अब्बू को पीट रहे हैं। मुँह से खून निकल आया। अधमरा होकर जमीन पर गिरा था वह। अंत में एकराम की अम्मी को बुलाकर उसे उसके हवाले कर दिया गया। उसे उठ कर चलने की ताकत नहीं थी और एकराम को अम्मी को उठा कर ले जाने की ताकत नहीं थी। वे कह रहे थे कि मुझे यही छोड़ दो। पर एकराम की अम्मी नहीं मान रही थी। कोई साथ देने के लिए तैयार नहीं था। वह घसीटते हुए ले जाने लगी एकराम के अब्बा को।

“इसी तरह कब्र में भी ले जाना।”

भीड़ से आवाज आई। सभी ऐसा कहने वाले को प्रशंसात्मक नजर से देख रहे थे। सबके मन की बात कह दी थी जो उसने।