सुबह की लाली / खंड 2 / भाग 8 / जीतेन्द्र वर्मा

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अनीता चादर से मुँह ढक कर सो गई। शायद नींद आ जाए। रह-रह कर आँखें भींग जाती। कितना सोच-समझ कर कदम उठाया था।

एकराम से नजदीकी बढ़ते समय ही उनके मन में खटका उठा था। घर पर शादी में दूसरी जाति की कौन कहे, एक ही जाति में गोत्र-कुंडली का मिलान नहीं होने पर शादी की बात कट जाती। धर्म के परे शादी कल्पनातीत थी। कई बार एकराम का मन टटोला। सुना था कि मुसलमान बड़े कट्टर होते हैं। अपना धर्म किसी भी हालत में नहीं बदलते। शुरू में एकराम बड़ा भाव दिखाता था। अनीता भी ठंडा हो चली। एकराम फोन पर फोन करता, मिलने का प्रयास करता पर कभी संपर्क नहीं करती। कटी-कटी रहने लगी वह। जब शादी होनी नहीं है तो बात बढ़ाने से क्या फायदा! उसे अपने और सहेलियों की तरह मौज-मस्ती के लिए यह सब करना नहीं है। अंत में भावना का ज्वार उठेगा। उसे संभालना मुश्किल होगा। इससे अच्छा है कि अभी ही अलग हो चला जाए।

एकराम हरान-परेशान था। एक दिन सरेआम अनिता का हाथ पकड़ लिया। बहुत छुड़ाना चाहा अनिता ने पर छुटा नहीं।

“आखिर बात क्या है?”

“पहले हाथ छोड़ो। फिर बताती हूँ।”

दोनों पार्क में गए।

“देखो एकराम, मुझे भूल जाओ।”

“क्यों? क्या हुआ??”

“क्योंकि अंततः हमारी शादी नहीं हो सकती।”

“क्यों? इसमें क्या बाधा है?”

“धर्म”

“धर्म!! वह कैसे?”

“क्योंकि मैं तुमसे शादी करने के लिए मुसलमान नहीं हो सकती।”

“यह तुमसे किसने कहा कि मुझसे शादी करने के लिए तुम्हें मुसलमान होना पड़ेगा?”

“तो तुम हिंदू बनोगे?”

“नहीं।”

“तो फिर कैसे................. ?”

“क्या हम बिना हिंदू, मुस्लिम हुए नहीं रह सकते?”

मैं तो रह सकती हूँ। तुम अपनी सोचो।”

“हम बिना धर्म के जीएगे। कबीर की तरह। मानुस धर्म को मानेंगे।”

“इंसान रहेंगे! सिर्फ इंसान!!”

और अनिता एकराम के बाँहों में समा गई। हमेशा-हमेशा के लिए।