30 अक्टूबर, 1941 / अमृतलाल नागर
कोल्हापुर, महाराष्ट्र
तीन दिन से रोज ही डायरी लिखने की बात सिर्फ सोचकर ही रह जाता था। आज चार रोज हुए यहाँ से 22 मील दूर 'रुकड़ी' स्टेशन पर आउटडोर शूटिंग के लिए गए थे। सबेरे साढ़े छह बजे ही यहाँ से मोटर पर निकल गए थे।
सूरज ताजा ही उगा था। सड़क और पहाड़ियाँ कुहरे से भरी हुईं। ठंडी मजेदार हवा और हमारी मोटर की तेज रफ्तार से उड़ती हुई - लाल धूल।
पहले एक पहाड़ी नाले के ऊपर बना हुआ छोटा-सा पुल मिला। पुल की ऊँचाई तक बढ़े हुए पेड़ों के सघन-कुंज। सड़क की ऊँचाई और नीचे घाटियों में कहीं कुदरती हरियाली, बसी हुई झोंपड़ियों के छप्परों से छनकर निकलता हुआ हल्का-हल्का धुआँ कुहासे के साथ ही मिलता हुआ। मोटर का हार्न बजा - दो बैलगाड़ियाँ खड़-खड़ करती खरामा-खरामा छोटी-सी सड़क को बड़ी जोरों में घेरे चली आ रही थीं। मोटर के हार्न ने उन्हें बतलाया, अभी स्वराज्य नहीं हुआ। हड़बड़ा कर 'टिख-टिख हिलाः हिलाः' की। बैलों की घंटियाँ बड़ी मस्ती के साथ मेरे कान के पास टुनटुना कर बैलों के गलों में झूमती-झूलती निकल गईं और गाड़ियों के निकलते ही हम कोल्हापुर के पास से होकर बहने वाली नदी 'पंचगंगा' के पुल पर थे। पंचगंगा को देखकर मुझे अपने यहाँ की गोमती की याद आई। ठिंगना आदमी अपने ही इतने कद वाले को पसंद करता है। दोनों किनारों पर हरियाली और पानी इतना शांत - मुझे लगा, नदी शायद अभी सोकर नहीं उठी - पंचगंगा नदी तो रियासत की ही है आखिरकार। बुझी हुई चौकोर कंदील को हाथ में लिए एक आदमी और उससे एकदम सट कर जरा उससे दो मुट्ठी आगे जाने वाली एक स्त्री को देखा - सड़क पर सामने कोहरा-नीचे पंचगंगा का एक कोना और हरियाली तथा पेड़ों पर छाया हुआ कोहरा। उस जोड़े की 'सिलुएट' पेंटिंग-सरीखी वह अदा दिल पर छाप मार कर अभी ही आँखों से ओझल हुई थी कि सड़क के बाईं तरफ दो पेड़ों का सहारा पाकर फलती हुई अमर बेल को देखा। दोनों पेड़ों पर बुरी तरह छाकर वह बीच में झूले की पटरी की तरह लटक रही थी। - उसके पीछे ही एक झोपड़ी और आगे एक बैलगाड़ी रखी हुई। उस वक्त बैल नहीं थे, झोपड़ी के आगे एक मुर्गा और एक मुर्गी पास-पास चुग रहे थे। मेरे दिमाग में 'विलायती मुर्गे़ के लिए एक आया : 'बुढ़िया हीरोइन एक नौजवान को लेकर इसी फिजा में मोटर पर खूब पीकर निकली है। यह पेड़ों का झूला, वह हरियाली और सन्नाटा देखकर वह फौरन ही मोटर रुकवाती है और नौजवान को उस कुदरती झूले के पीछे घसीट कर ले जाती है।'
रुकड़ी स्टेशन पर एक गूँगी बुढ़िया रेल के चले जाने के बाद कुछ ढूँढ़ रही थी। मैं समझ गया, किसी मुसाफिर ने कुछ दान फेंका है, वह उसी को खोज रही है। मेरी इच्छा थी कि अपना एक पैसा फेंककर उसे यह समझने दूँ कि यह वही पैसा है जिसे वह खोज रही थी। लेकिन उसने मुझे देख लिया और हाथ उठाकर सैकड़ों आशीर्वाद दिए और फिर ढूँढ़ने में लग गई। कुछ देर बाद उसे एक पाई मिली। बड़ी निराश हुई - उसने पाई मुझे दिखाकर अपने चेहरे पर ये भाव लिया कि इसके पीछे मुझे मेहनत बहुत ज्यादा करनी पड़ी और कीमत बहुत कम मिली। मैंने एक इकन्नी निकाल कर उसे दी। गरीब महाराष्ट्र प्रांत के बेहद मामूली स्टेशन रुकड़ी की उस गूँगी बूढ़ी भिखारिन को जान पड़ता है इकन्नी किसी ने कभी भी भीख में नहीं दी थी। उसे आश्चर्य और प्रसन्नता इस कदर हुई - अगर जबान होती तो वह न जाने क्या कहती। उसकी मुख-मुद्रा और हाव-भाव से ऐसा मालूम पड़ता था जैसे वह आज अपनी वाक् शक्ति को थोड़ी देर के लिए चाहती ही है। उस वक्त तो उसने जितने आशीर्वाद दिए तो दिए ही; बाद में भी जब-जब वह मुझे देखती, आशीष देती। वह कितना सच्चा आशीर्वाद था! - उससे मेरे रतन-मदन और बेबी, शरत-आशा का कितना भला होगा।
सुंदरबाई बड़ी ही सीधी-सादी औरत है। बुढ़िया मुझसे बड़ा प्रेम करती है। रतनबाई और वत्सलाबाई तो कुरसी पर बैठी हुई और वह खड़ी हुई। मुझसे देखा न गया। मैंने एक बिस्तर उठा कर उसके लिए रखना चाहा। जैसे ही बिस्तर उठाने उठा, विनायक राव यह समझकर कि मैं उस पर बैठूँगा, खुद बैठने के लिए झुके। मैंने फौरन ही उनसे कहा : आपसे ज्यादा बुढ़िया को उसकी जरूरत है।
हाय, कैसा क्लेश होता है मन को जब यह देखता हूँ कि अधिकारी होकर लोग मनुष्यता को भूल जाते हैं।