शिक्षा-जगत् शिक्षा जगत् की विसंगतियों को उकेरती लघुकथाएँ / कविता भट्ट
लम्बे समय से लघुकथाकार सुकेश साहनी जी की सतरंगी लघुकथाओं को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने लघुकथा के विविध आयामों को ऐतिहासिक एवं नवीनतम सोपानों पर प्रतिस्थापित किया; यह उपक्रम निरन्तर गतिशील है। विविध समकालीन समस्याओं एवं समाधानों के रंगों में रंगी उनकी लघुकथाएँ आधुनिक समाज का दर्पण हैं। मानव जीवन के विविध पक्षों यथा-प्रेम, परिवार एवं समाज आदि जैसे विषयों पर केन्द्रित इनकी लघुकथाओं का एक पक्ष बहुत ही रोचक एवं चिंतनीय है; जिस पर मैं बात करना चाहती हूँ। शिक्षा-जगत् के ज्वलंत प्रश्नों को चित्रित करती सुकेश साहनी की लघुकथाएँ वस्तुतः आधुनिक शिक्षा पद्धति की विकृतियों एवं विसंगतियों का गूढ़ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। वे अपनी छोटी से छोटी लघुकथा द्वारा शिक्षा जगत् में विद्यमान शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया की बड़ी से बड़ी चुनौती को चित्रित करते हैं। वे यहीं नहीं रुकते; अपितु उसके समाधानस्वरूप ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत करते हैं; जिनके समक्ष बड़े से बड़े शिक्षाविद् भी नतमस्तक हो सकते हैं। मेरा सौभाग्य है कि सुकेश साहनी की इस विषय पर केन्द्रित लघुकथाओं की समीक्षा का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनकी लघुकथाओं को समझने हेतु ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी कुछ तथ्यों को स्पष्ट करना अनिवार्य है; तो मैं वहीं से प्रारम्भ करूँगी एवं तत्पश्चात् उनकी कुछ रोचक एवं प्रासंगिक लघुकथाओं का शृंखलाबद्ध विवेचन करुँगी। सर्वप्रथम ज्ञान-विज्ञान के कुछ तथ्यों को स्पष्ट करने से प्रारम्भ करती हूँ।
हम सभी को विदित है कि ज्ञान-विज्ञान की यात्रा अनादि एवं अनन्त है। यह ऐसी प्यास है; जो कभी भी शान्त नहीं होती। यह पिपासा उपयुक्त भी है; क्योंकि यही वह कारक है; जिसने मनुष्य को अन्य प्राणियों से उत्कृष्ट सिद्ध किया। मानव सभ्यता को विकास के चरम पर प्रतिस्थापित करने का श्रेय ज्ञान-विज्ञान को ही जाता है। भारतवर्ष के सन्दर्भ में बात की जाए तो ज्ञान-विज्ञान की प्रक्रिया एवं लक्ष्य उसके लिए नए नहीं हैं। इसे प्राप्त करने के साधनों में परिवर्तन दूसरा पक्ष है; किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से यह वैदिक सभ्यता से ही परा एवं अपरा विद्या की बात करता है। भारतीय गुरुकुल पद्धति पर आज वैश्विक अनुसंधान हो रहे हैं तथा शिक्षण-अधिगम के सहज ढंग एवं तकनीक के नवीनतम आदर्श (मॉडल) खोजने तथा उन्हें शिक्षा-पद्धति में प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारतीय ज्ञान-परम्परा स्वयं में इतनी समृद्ध है कि 'परम्परा' शब्द ही स्वयं में परा एवं अपरा विद्या को समाहित किए हुए है।
परा अर्थात् अध्यात्म / ब्रह्म विद्या; जो परालौकिक है एवं अपरा अर्थात् लौकिक ज्ञान। लौकिक ज्ञान को भौतिक ज्ञान भी कहा जाता है; जितना भी सांसारिक ज्ञान है; वह इसमें ही समाहित है। अपरा विद्या हेतु चारों वेद, छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष एवं छन्द) , पुराण तथा विविध दर्शनों आदि लौकिक साधनों का प्रयोग किया जाता है। परा विद्या आत्म साक्षात्कार या परमानन्द को प्राप्त करने का भारतीय मूल मंत्र है। वस्तुतः आज सम्पूर्ण विश्व भौतिक सुखसाधनों से परिपूर्ण होने पर भी इसी आत्मिक आनन्द की खोज में है। यह सच है कि प्रकृति के सम्पूर्ण रहस्यों को जाने बिना अध्यात्म विद्या प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति के विविध सिद्धान्तों यथा बिन्दु विस्फोट सिद्धान्त (बिंग-बैंग थ्योरी) , गुरुत्वाकार्षण सिद्धान्त (थ्योरी ऑफ ग्रेविटी) , कृष्ण विवर सिद्धान्त (ब्लैक होल थ्योरी) , सृष्टि एवं प्रलय (क्रिएशन एवं डिस्ट्रक्शन) , काल (टाइम) , दिक् (स्पेस) आदि के साथ ही व्यक्तित्व (पर्सनैलिटी) , गुण (मोड्स) , कर्म (एक्शन) , स्वभाव (नेचर) , महत्त्व (कॉस्मिक इन्टॅलैक्ट) , मन (कॉस्मिक माइण्ड) से लेकर इन्द्रियाँ (सेन्सेज) आदि सभी कुछ अपरा विद्या के विषय हैं; आधुनिक विज्ञान की समस्त खोजें भी इसी के अन्तर्गत हैं; किन्तु जो पराभौतिक ज्ञान की ओर अग्रसर हो जाता है; उसे यह सब ज्ञान मिथ्या प्रतीत होने लगता है। भारतीय ज्ञान परम्परा आत्मसाक्षात्कार को सर्वोपरि मानती है; जिसके साधन स्वरूप वह पराविद्या को ही उत्कृष्ट मानती है।
वैदिक सभ्यता में श्रुति द्वारा ज्ञानप्राप्ति मानवकल्याण की हेतु बनी; कालान्तर में विविध आविष्कारों के द्वारा इसके संचरण का ढंग परिवर्तित होता चला गया। ज्ञान-विज्ञान के साधनस्वरूप प्रकाशित पुस्तकों से लेकर आधुनिक अन्तर्जाल (इन्टरनेट) तक की यात्रा स्वयं में अत्यंत रोचक एवं ऐतिहासिक है। इस यात्रा द्वारा मानव सभ्यता ने स्वयं को विकास के उच्चतम शिखरों पर आरूढ़ किया; किन्तु ज्ञानप्राप्ति के साधनों के आधुनिकीकरण की अपनी विसंगतियाँ एवं विकृतियाँ भी है। इसे समझने के लिए ज्ञान शब्द को समझना चाहिए; जो 'ज्ञ' से व्युत्पन्न है; जिसका अर्थ है-जानना; ज्ञानप्रक्रिया के तीन घटक होते हैं; जिन्हें 'त्रिपुटीसंवित्' कहा जाता है; जिसके अन्तर्गत ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय समाहित हैं। ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय को प्रमाता, प्रमाण एवं प्रमेय भी कहा जाता है। ज्ञाता (प्रमाता) अर्थात् जो जानने का प्रयास करता है; ज्ञान (प्रमाण) अर्थात् वे साधन जिनके द्वारा ज्ञाता जानने का प्रयास करता है एवं ज्ञेय (प्रमेय) अर्थात् वह अभीष्ट विषय, जिसको जानने का प्रयास अभिलक्षित हो। अब विज्ञान की बात करें, तो किसी भी विषय का विशेष ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है। ज्ञान हो या विज्ञान दोनों के मूल में जिज्ञासा है; व्यक्ति की स्वाभाविक प्रकृति उसे इस ज्ञान-यात्रा के मार्ग पर चलने के लिए जन्म से मृत्युपर्यन्त प्रेरित करती रहती है। विशेष तथ्य यह है कि ज्ञान-विज्ञान जो वैदिक सभ्यता में सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया थी; उसको आधुनिक शिक्षा पद्धति में इतना अधिक कंटकाकीर्ण, प्रतिस्पर्धात्मक, मशीनी एवं जटिल बना दिया गया कि उसके घातक परिणाम किशोरों तथा युवाओं द्वारा की जा रही आत्महत्या जैसे घातक परिणाम के रूप में दृष्टिगोचर होने लगी। जब ज्ञाता ही नहीं रहेगा तो कैसा ज्ञान-विज्ञान और किसके लिए ज्ञान-विज्ञान? ज्ञान-विज्ञान जो प्रकृति के साथ सहज समायोजन, संवर्धन, संरक्षण एवं सहजात सम्बन्धों को परिपोषित करते हुए मानव अस्तित्व के लिए था; वह आज मात्र तुच्छ भौतिक संसाधनों एवं मानव की आत्म-केन्द्रित जिजीविषा का पर्याय बन गया है। यह घातक ही नहीं अपितु मानव के तथाकथित सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवी होने पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में शिक्षा जगत् की विसंगतियों को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करके यही प्रश्न उठाते हैं कि वस्तुतः ज्ञान-विज्ञान मनुष्य के जीवन को सरल बनाने का हेतु है या उसको कंटकाकीर्ण मार्ग पर धकेलने का। मूल प्रश्न है; शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया का अत्यंत भयावह तथा जटिल होना। प्रत्येक बालक-बालिका की अधिगम क्षमता एवं बोधगम्यता बिल्कुल भिन्न होती है। पारिवारिक परिदृश्य, सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ नितान्त भिन्न होते हुए भी प्रत्येक छात्र-छात्रा को विद्यालयीय शिक्षा प्रणाली में एक ही डण्डे से हाँका जाता है। यह आधुनिक शिक्षा-पद्धति का ऐसा दोष है; जिसका परिणाम आज किशोर एवं युवा वर्ग को अधिक से अधिक आत्महत्याओं, मानसिक कुंठाओं-विकृत मनोविकारों के रूप में भोगना पड़ रहा है।
शिक्षा जगत् के ज्वलंत विषयों पर केन्द्रित सुकेश साहनी द्वारा रचित-मैं कैसे पढूँ, शिक्षाकाल, शिक्षाकाल-2, पिंजरे,ग्रहण एवं बोंजाईआदि अनेक ऐसी लघुकथाएँ हैं; जो आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक एवं गला-काट शिक्षा व्यवस्था पर विचारणीय किन्तु अनुत्तरित प्रश्नचिह्न लगाती है। इन लघुकथाओं को पढ़कर गहन चिंतन एवं मनन के द्वारा यही सिद्ध होता है कि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक को भावनात्मक बुद्धिमत्ता ग्रहण करने की महती आवश्यकता है। आज इस विषय पर वैश्विक स्तर के शोध निरन्तर हो रहे हैं कि बाल मनोविज्ञान को समझकर प्रत्येक बच्चे को एक सुयोग्य, सुसंस्कृत एवं सुसभ्य व्यक्ति कैसे बनाया जाय। बच्चे ही तो कल का भविष्य हैं; वे नींव हैं मानवतावादी मूल्यों के सुदृढ़ भवन की; किन्तु इसके लिए उनके बालमन को पूर्णतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझना तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षण-अधिगम के उपायों को शिक्षण प्रक्रिया में समाहित करना वांछनीय ही नहीं अपितु अनिवार्य है। इस समावेश के लिए श्री साहनी की लघुकथाओं का सूक्ष्म विश्लेषण आवश्यक है।
इस शृंखला में मैं सर्वप्रथम बात करती हूँ श्री साहनी द्वारा रचित 'मैं कैसे पढूँ' लघुकथा की। यह बालमन की जटिलताओं एवं उसमें पारिवारिक वातावरण की विसंगतियों से उपजी ऐसी मनोवैज्ञानिक अवस्था को स्पष्ट करती है; जिसे समझे बिना अध्यापन कार्य सम्भव नहीं है; जबकि बालमन की इन कठिनाइयों को समझे बिना ही अध्यापक कक्षा में उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं; जो पठन-पाठन को और भी अधिक जटिल बना देता है। आज यदि अधिकतर बच्चे आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठाते हैं; तो कहीं न कही इसके लिए शिक्षण के अन्तर्गत अपनाई जा रही इस प्रकार की गतिविधियाँ भी उत्तरदायी हैं। यदि किसी बच्चे के घर में किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु से शोक का वातावरण हो; तो निश्चित रूप से कक्षा में उसका मन नहीं लगेगा। लघुकथा 'मैं कैसे पढूँ' की मुख्य पात्र बालिका शुचि; जिसके घर में मृत्यु की घटना घटी है; वह उस सदमे से उबर नहीं पाती किन्तु उसकी टीचर इस तथ्य को समझे बिना ही उस पर प्रश्नों की झड़ी लगाते हुए; पूरी कक्षा के समक्ष उसको डाँटना और सजा देना प्रारम्भ कर देती है। शिक्षकों द्वारा बालमन पर इस प्रकार का अत्याचार कहाँ तक उचित है; यह गम्भीर प्रश्न श्री साहनी ने बहुत ही मार्मिक ढंग से इस लघुकथा के माध्यम से उठाया है। उपर्युक्त लघुकथा आधुनिक शिक्षण पद्धति की विसंगतियों पर एक तीखा प्रहार है। सारांश यह है कि बच्चों के लिए यथोचित शिक्षण की पहली शर्त भावनात्मक बुद्धिमत्ता ही है; इसके बिना शिक्षण उत्पीड़न की श्रेणी में रखा जायेगा; जो छात्रों में तनाव, मानसिक कुंठा एवं अवसाद आदि मनोरोग उत्पन्न करता है; जो नैतिक अवनयन के द्वारा बाल अपराध का भी कारण बनते हैं। इस प्रकार आधुनिक युग में ऐसी ही शिक्षण द्वारा मानवता के सुनहरे भविष्य को अंधेरे में धकेला जा रहा है।
श्री साहनी द्वारा रचित 'शिक्षाकाल' भी बाल मनोविज्ञान पर आधारित इसी प्रकार की लघुकथा है; जो आधुनिक शिक्षण पद्धति पर प्रश्नचिह्न लगाती है। एक बच्चे की कल्पनाशीलता एवं उसकी स्वाभाविक सृजनशीलता को अध्यापकों का अवांछनीय व्यवहार किस प्रकार झूठ बोलने को विवश करता है; इस लघुकथा का मुख्य विषय यही है। एक बच्चा कक्षा में शिक्षक के व्यवहार से इतना अधिक घबराया हुआ है कि वह सपने में भी अपने शिक्षक की क्रूरता ही देखता है और सपने में चिल्लाते हुए, घबराते हुए उसकी नींद खुल जाती है; परिणामस्वरूप वह पेटदर्द का झूठा बहाना बनाकर सुबह स्कूल जाने से इन्कार कर देता है। सपने में उसने देखा कि फेंक दी गई बेकार वस्तुओं से उसके द्वारा बनायी गई कुछ पेंटिंग्स आदि को शिक्षक पीट-पीटकर उसकी जेब से बाहर निकलवा रहा है। यहाँ तथ्य यह है कि बच्चों की जिस रचनात्मकता, नवाचार एवं सृजनशीलता को नवीन आविष्कारों की दृष्टि से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए; उसके लिए वह पुरस्कार के स्थान पर अध्यापक द्वारा दण्डित किया जाता है; जो शिक्षण-कार्य में एक बड़ी बाधा है। ऐसा करने से बच्चों का मन आविष्कार के स्थान पर केवल रट्टू तोते वाली लकीर की फकीर शिक्ष-व्यवस्था पर केन्द्रित हो जाता है; जबकि इतिहास गवाह है कि दुनिया के बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक औपचारिक शिक्षा से नहीं अपितु अपने किये गये संवाद-शिक्षण एवं नवाचार क्रियाशीलता से ज्ञान-विज्ञान के शीर्षस्थ प्रकाश-स्तम्भ बने। योगविज्ञान के प्रणेता महर्षि पतंजलि, न्यायशास्त्र के प्रणेता महर्षि गौतम, वैशेषिक सूत्र द्वारा पदार्थ एवं परमाणु का सर्वप्रथम विश्लेषण करने वाले महर्षि कणाद, शून्य आदि के प्रणेता आर्यभट्ट, गणितज्ञ भाष्काराचार्य इत्यादि असंख्य भारतीय गुरुओं एवं अन्वेषकों के साथ ही सॉक्रेटीज, प्लेटो, एरिस्टॉटल, आइंस्टाइन, थॉमस एल्वा एडिसन इत्यादि अनेक पाश्चात्य गुरुओं एवं वैज्ञानिकों ने संवाद-शिक्षण एवं नवाचार पद्धति से ही विश्व को ज्ञान-विज्ञान के अनेक सोपान समर्पित किये। उल्लेखनीय है कि एडिसन को विद्यालय से मूर्ख कहकर निकाल दिया गया था एवं आइंस्टाइन को शोधकार्य की औपचारिक डिग्री हेतु योग्य मानने से शिक्षण-व्यवस्था ने इन्कार कर दिया था। श्री साहनी ने अपनी लघुकथाओं द्वारा इन्हीं गहन प्रश्नों को उठाया है; जिसमें वे सफल भी रहे हैं।
अब बात करते हैं; सुकेश साहनी की उत्कृष्ट लघुकथाओं में से एक (जो कि अपने रचनाकाल 1985 के समान ही आज भी प्रासंगिक है) मुझे सबसे अधिक अच्छी लगी; वह 'शिक्षाकाल-2' है। यह आधुनिक उच्चशिक्षा की अनेक विसंगतियों को चित्रित करती है। इसमें शोधछात्र अजय को उच्चशिक्षा-जगत् में व्याप्त विकृतियों के कारण शोधकार्य पूर्ण न कर पाने तथा पारिवारिक प्रत्याशाओं के बीच झूलने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को यथोचित ढंग से विवेचित किया गया है। कथा का मुख्य पात्र अजय है, जिसके गाइड प्रो0 शर्मा एक सुन्दर लड़की मिस मधु को भी अपने मार्गदर्शन में शोधकार्य करवाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रो0 शर्मा उस लड़की से अपने वासनात्मक सम्बन्धों के चलते उसे बिना गम्भीर शोध के ही डिग्री दिलवा देना चाहते हैं। अजय से मिलता-जुलता टॉपिक देकर वे मधु के लिए भी उससे ही कार्य करवाना चाहते हैं; जबकि अजय अत्यंत गरीब घर से है; वह अपना शोधकार्य पूर्ण करके जल्दी ही नौकरी करना चाहता है; जिससे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सके; किन्तु प्रो0 शर्मा अपनी चरित्रहीनता के कारण उसका शोषण करते हैं।
यह कथा बताती है कि एक गरीब छात्र जब शोध कार्य करने के लिए पूरा निचुड़ जाता है; तब भी व्यवस्था उसको लाचार एवं भिक्षुक बनाये रखती है; यह वस्तुत अत्यंत गम्भीर एवं चिंतनीय विषय है; जो सुकेश जी ने अत्यंक सजीव ढंग से चित्रित किया है। यह लघुकथा उच्चशिक्षा में सेवारत शिक्षकों की चरित्रहीनता के साथ ही, चहुँ ओर व्याप्त भ्रष्टाचार तथा शोषण एवं उससे उपजे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व द्वारा छात्रों के समक्ष उपस्थित मानसिक दबाव को प्रस्तुत करती है। वस्तुतः यदि शिक्षा व्यवस्था में इसी प्रकार की विसंगतियाँ इस लघुकथा के रचनाकाल 1985 से अभी तक जारी ही नहीं; अपितु इसमें उत्तरोत्तर नकारात्मक वृद्धि ही हो रही है; तो कैसे कहें कि मानव सभ्यता विकास के चरम पर है।
इस शृंखला में श्री साहनी की एक अन्य लघुकथा 'पिंजरे' उल्लेखनीय है; जिसमें एक बच्चे को प्रकृति एवं प्रकृतिजन्य अन्य प्राणियों में साथ एक सहजात सम्बन्ध बनाते हुए दिखाया गया है। वह बच्चा कुत्ते, उसके पिल्लों, घर से विद्यालय तक के रास्ते में खड़े हरे-भरे पेड़ों, उन पर लदे फलों एवं बन्दर आदि जंगली पशुओं को प्रेम से निहारता हुए विद्यालय पहुँचता है। इस बीच उसे याद ही नहीं कि वह विद्यालय जा रहा है; किन्तु विद्यालय के गेट पर पहुँचते ही उसे शिक्षा जगत् की कड़वी सच्चाई अर्थात् औपचारिक शिक्षा के सबसे चिंतनीय मुद्दे 'भारी बस्ते' का ध्यान आता है। यह लघुकथा पर्यावरण एवं जैव-विविधता के सन्दर्भ में अतिप्रासंगिक है; बच्चों की इसके प्रति प्रेम एवं उससे जुड़ाव की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना बचपन से ही आवश्यक है। साथ ही यह इन विषयों पर शोर-शराबे के साथ करवाये जाने वाले वैश्विक पर्यावरण सम्मेलनों से भी अधिक उपयोगी भी सिद्ध होगा। शिक्षाविदों को इन विषयों पर भी विचार करना चाहिए कि मानव को बचपन से ही मशीन बनाने के स्थान पर सर्वप्रथम प्रकृतिजन्य मानव बनायें; ऐसा करने से नैतिक अवनयन की अधिकतर समस्याओं का समाधान सुनिश्चित होगा।
सुकेश साहनी की एक अन्य लघुकथा 'ग्रहण' भी ऐसे ही कुछ चिंतनीय मुद्दों को उठाती है; किन्तु यह शिक्षकों के नहीं अपितु बच्चों पर अभिभावकों द्वारा किये जाने वाले मशीनी उत्पीड़न को विश्लेषित करती है। इस लघुकथा में बच्चे को ग्रहण की प्रक्रिया व्यावहारिक धरातल पर समझाने के बजाय रट कर याद करने जैसे शिक्षण जगत् के अनेक हास्यास्पद तरीकों पर प्रश्न उठाती है। आज की शिक्षा व्यवस्था मात्र परीक्षा में प्राप्त किये जाने वाले प्रतिशत एवं परीक्षाफल तक ही सीमित होकर रह गयी। अभिभावक भी मात्र अपनी झूठी शान को दिखाने के लिए अपने बच्चों को इसी घातक एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लगाए रहते हैं; जिससे बच्चे अपनी सहजता खो देते हैं।
इस क्रम में साहनी जी द्वारा लिखी गई बोंजाई लघुकथा भी अति प्रेरक है। इस कथा के द्वारा उन्होंने विश्लेषण किया है कि एक पौधा, जो प्राकृतिक वातावरण में पलता है; वह फल-फूलकर एक स्वस्थ एवं सुदृढ़ वृक्ष बनता है; किन्तु उसी पौधे को घर में कैद करके बोंजाई के रूप में रखा जाता है; जो सिर्फ़ थोड़ी देर देखने में अच्छा लगता है; उसमें न तो फल ही लगते हैं; ना ही उसकी छाया में कोई बैठ सकता है; न ही वह उतनी ऑक्सीजन ही देता है। इसी प्रकार एक बच्चा जब स्टेटस सिंबल के कारण घर में केवल वीडियो गेम्स तथा कम्प्यूटर में उलझा दिया जाता है; तो उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है; वह एक रोबोट की भाँति हो जाता है। मानव अभिक्रियाओं, प्रतिक्रियाओं तथा सामाजिक संवादों से उस बच्चे का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस प्रकार की घातक शिक्षण पद्धति, विद्यालय एवं घर का विसंगति युक्त वातावरण बच्चों में मात्र मानसिक कुंठा, अवसाद, तनाव, दुश्चिंता, उद्वेग तथा अन्तर्द्वन्द्व आदि ही उत्पन्न करेगा। वह एक अच्छा नागरिक कैसे बनेगा; जब उसे आत्म-केन्द्रित एवं मशीनी बना दिया जाएगा।
सुकेश साहनी की एक अन्य लघुकथा 'बैल' भारतवर्ष में विद्यार्थियों पर बलपूर्वक लादी जा रही अंग्रेज़ी शिक्षा के काले पक्ष का शब्दचित्र खींचा गया है। आज माहौल ऐसा हो गया है कि जिस व्यक्ति को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसे अनपढ़ से भी निम्न स्तर का समझा जाता है। आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक शहर में अमुक जाने-माने संस्थान या विद्यालय के विद्यार्थी ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि वह अच्छी अंग्रेज़ी नहीं जानता था और उस पर अंग्रेज़ी सीखने, लिखने एवं बोलने का दबाव था। स्थिति यह है कि यदि अंग्रेज़ी न आये तो व्यक्ति कितना भी सभ्य और सुसंस्कृत हो; उसे असभ्य एवं असंस्कृत ही माना जाता है। अंग्रेज़ी जानते हुए व्यक्ति कितना भी कुसंस्कारी हो; उसे सभ्य एवं सुसंस्कृत माना जाता है। यह अपनी मातृभाषा एवं मातृभूमि के प्रति उपेक्षा तथा घृणा वाली परतन्त्रता का द्योतक है। इस मानसिकता से शिक्षा पद्धति को बाहर निकालना आवश्यक है। भारतवर्ष 1947 में अंग्रेजों से स्वतन्त्र हुआ था किन्तु शिक्षा पद्धति उसी समय वाली चल रही है; हम मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजियत के अधीन हैं एवं उत्तरोत्तर इस अधीनता में वृद्धि ही हो रही है। यह अशुभ, चिन्तनीय एवं घातक है।
आखिर कब तक हम अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं भाषा की उपेक्षा करके विकसित होने का ढोंग करते रहेंगे। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति; जो नैतिक मूल्यों की संवाहक है; कब तक उसकी उपेक्षा करके हम मात्र भौतिक विकास में मात्र व्यावसायिक मापदण्डों हेतु अपनायी जा रही अंग्रेज़ी के गुलाम बनकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित भारतवर्ष की शिक्षापद्धति आज अंग्रेज़ी महलों में नाचने वाली नर्तकी बन गई है। इस व्यवस्था पर इसी प्रकार के प्रश्न बहुत ही तीखे ढंग से उठाती है; सुकेश साहनी की लघुकथा 'बैल' । इस लघुकथा को पढ़कर आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर अनेक ज्वलंत प्रश्न खड़े हो जाते हैं। आज के विद्यार्थी को इस यन्त्रचालित पद्धति ने विवेकशून्य बैल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
सार यह है कि शिक्षाविदों के दृष्टि में पराविद्या तो आकाशकुसुम है ही; किन्तु अपरा विद्या को भी आधुनिक शिक्षा जगत् में तथाकथित शिक्षाविदों एवं अभिभावकों ने मात्र यान्त्रिक बना दिया है। यह व्यक्ति को मुद्रा या नोट के मुद्रण की मशीन मात्र बना रही है; उसके अतिरिक्त कुछ नहीं। शिक्षा का उद्देश्य मानव में मानवतावादी मूल्यों का विकास है; किन्तु यह शिक्षा व्यवस्था नैतिक पतन के लिए उत्तरदायी है। इस सम्बन्ध में शिक्षाविदों की आँखें खोलने हेतु मुझे श्रीकृष्ण का उदाहरण अतिप्रासंगिक लगता है; जिन्होंने गुरु सान्दीपनि से परा-अपरा विद्या में समाहित अनेक कलाएँ सीखी थीं। उन्हें ये आजीविका प्राप्त करने के साथ ही मानवतावादी मूल्यों को परिपोषित करने की कलाएँ सहज एवं प्राकृतिक बोधगम्यता के साथ सिखाई गईं। साथ ही यह लिखना भी प्रासंगिक है कि श्रीकृष्ण समर्थ परिवार से थे और उसी गुरु से शिक्षा ग्रहण करने वाले सुदामा अत्यंत निर्धन परिवार से थे। बिना किसी भेदभाव के गुरुओं द्वारा शिष्यों को भावनात्मक बुद्धिमत्ता के साथ शिक्षा प्रदान की जाती थी। भावनात्मक बुद्धिमत्ता शिक्षक का अनिवार्य गुण है; जिसमें मन एवं मस्तिष्क का संतुलन एवं सामंजस्य बनाते हुए ही छात्रों को बोध-अधिगम की प्रक्रिया में ज्ञाता या प्रमाता बनाया जाता है; कोई नोट छापने की मशीन नहीं। आधुनिक शिक्षा पद्धति मात्र आजीविका एवं भौतिक परिसम्पन्नता पर ही केन्द्रित हो गयी है; जो मानव एवं मानवतावादी मूल्यों के भविष्य को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करती है।
लघुकथाकार सुकेश साहनी ने कुछ ऐसे ही ज्वलंत प्रश्नों एवं विषयों को बहुत ही गहन चिंतन के साथ सूक्ष्म दृष्टि से उठाया है; जिससे शिक्षा-जगत्, उससे जुड़े़ शिक्षकों, शिक्षाविदों तथा नीतिनिर्माताओं की आँखें खुलें। साहनी जी को मेरी ओर से कोटिशः साधुवाद; वे निरन्तर इसी रचनात्मक ऊर्जा के साथ साहित्य सेवा में निरत रहें; ऐसी मेरी शुभेच्छा है।
सन्दर्भ ; ;* शिक्षाकाल / सुकेश साहनी ,*शिक्षाकाल-2 / सुकेश साहनी,* मैं कैसे पढ़ूँ / सुकेश साहनी,* बैल / सुकेश साहनी,* पिंजरे / सुकेश साहनी,* बोंजाई / सुकेश साहनी,* ग्रहण / सुकेश साहनी